Book Title: Jaipur Khaniya Tattvacharcha Aur Uski Samksha Part 2
Author(s): Fulchandra Jain Shastri
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 398
________________ ७६८ जयपुर (खानिया ) तत्त्वचर्चा होता है और घट उससे भिन्न घटरूप ही प्रतिभासित होता है, क्योंकि उस समय उत्पन्न हुआ घटज्ञान आत्माके ज्ञानगुण की पर्याय है और जिस घटको उसने जाना वह मिट्टी आदि रूप पुद्गल द्रव्यकी व्यञ्जन पर्याय है। ज्ञान चेतनरूप है और घट जहरूप है। इन दोनोंके द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव अत्यन्त भिन्न हैं। अतएव इनका वास्तविक सम्बन्ध तो बनता नहीं यह प्रत्यक्ष है। फिर भी इनका सम्बन्ध कहा जाता है, उसे व्यवहार ही जानना चाहिए। प्रयोजन आदि वश लोकमें ऐसा व्यवहार किया जाता है इतना सच है। इसके लिए प्रवचनसार गाथा ३६ को आचार्य अमृतवन्द्र रचित टीकापर दृष्टिपात कीजिए। इस प्रकार वस्त विचारके प्रसंगमें द्रव्याथिक नय और पर्यायाथिक नयका क्या तात्पर्य है और मध्यास्मदृष्टि से निश्चयनय और व्यवहारनयका क्या तात्पर्य है इसका विशवरूपसे स्पष्टीकरण किया । अपर पक्षने अपनी प्रस्तुत प्रतिशंकाके प्रारम्भमें अनेकान्तका जो स्वरूप निर्देश किया है उसीसे यह स्पष्ट हो जाता है कि दो द्रव्यों और उनके गुणधर्मों का अवलम्बन लेकर जितना भी कथन किया जाता है वह सब असद्भूत व्यवहार नयका हो विषय है, सद्भूत व्यवहारनयका विषय नहीं। ८. अपर पक्षने 'प्रत्येक द्रव्य उत्पाद-व्यय-धोव्यमयी है। ऐसा लिखकर इसकी सिद्धि जो निश्चयनय और व्यवहार नयसे की है सो यहां व्यवहारनयसे सद्भुत व्यवहारनय ही लिया गया है, असद्भुत व्यबहारनय नहीं, क्योंकि असद्भुत व्यवहारनय त्रिकालमें उसी द्रव्यके गुण-गायकी उसी में प्रसिद्धि न कर प्रयोजनादिवश अन्य द्रव्य के गुण-धर्मको उससे भिन्न दूसरे द्रव्यका प्रसिद्ध करता है। अपर पक्ष समझता है. कि हम व्यवहार नयको असत्य और अप्रामाणिक मानते हैं, किन्तु उसकी ऐसी मान्यता ठीक नहीं है, क्योंकि उससे लोकव्यवहारकी प्रसिद्धि होती है, अतः इस दृष्टि से आगममें उसे भी प्रामाणिक और सत्य ही माना गया है। यदि कोई नयवपन बिना प्रयोजन प्रादिके अन्य द्रब्यके गुणधर्मको अपने से भिन्न दूसरे द्रव्यका कहता है तो वह नयामास होने के कारण अवश्य ही असत्य और अप्रामाणिक माना जायगा। ६. सर्वज्ञदेवने जो व्यवहार सम्यक्त्व व व्यवहार मोक्षमार्गका उपदेश दिया है वह इसलिए नहीं कि उसे वीतराग सम्यक्त्व व वीतराग मोक्षमार्ग मान लिया जाय, अन्यथा ये दोन होकर एक हो जायेंगे और ऐसी अवस्थामै परको निमित्त कर होने वाले शुभभावोंका भी मोक्षमें सद्भाव मानना अनिवार्य हो जायगा। किन्तु भगवानका तो यह उपदेश ईकम्मबंधी हि णाम सुहासुहपरिणामहितो जायदे, सुद्धपरिणामहितो तेसि दोण्णं पिणिम्मूलक्खओ। धवलापु. १२ पृ. २०९ शुभ और अशुभ परिणामोंसे नियमसे कर्मबन्ध होता है लथा शुद्ध परिणामोंसे उन दोनोंका नियमसे निमल क्षय होता है। और भगवान्का यह उपदेश भी है असुहादी विणिविसी सुहे पविती य जाप चारितं । बद-समिदि-गुत्तिरूवं ववहारणया दु जिणमणियं ॥४५॥ -यूहनुष्य-संग्रह

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