Book Title: Jaipur Khaniya Tattvacharcha Aur Uski Samksha Part 2
Author(s): Fulchandra Jain Shastri
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur
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जयपुर (खानिया ) तस्वचर्चा है । आचार्य अमृतचन्द्रने समयगार कलश १११ में 'मग्नाः शाननयैषिणोऽप्यतिस्वच्छन्दमन्दीखमाः' यह वचन लिखा है। ससीको ध्यान में रखकर पण्डित आशाघरजीने उक्त श्लोक की रचना की है, अतः उस परसे वही आशय लेना चाहिए जो समग्र कलशका है। इसी सम्मको पण्डितप्रवर बनारसोदासजीने इन शब्दों में व्यक्त किया है--
ज्ञानचेसनाके जगे प्रगटे केवलराय ।
कर्मचेतनामें बसे कमबन्ध परिणाम १८६॥ अतएव उपादेय तो एकमात्र ज्ञायकभाव ही है ऐसा ही यहाँ निश्चय करना चाहिए ।
४. अपर पक्षने पुरुषार्थ सयुपाय इलो०५० को उक्त कर उसका जो अर्थ दिया है वह ठीक न होनेपर भी हम उक्त श्लोकके आशयको स्वीकार करते है। उक्त श्लोक द्वारा जो निश्चयको न जानकर यद्वा तद्वा विचार और प्रवृत्तिको ही मोक्षमार्ग जानते हैं वे करण-चरण दोनोंका नाश करते हैं। बाघ करणमें आलसी होने से बाल है।' यह भाव ऐसे पुरुषोंके प्रति प्रगट किया गया है जो निरुपयके ज्ञानसे सर्वथा अनभिज्ञ है। उनके लिए नहीं जो निश्चयको जानकर तत्स्वरूप परिणतिमें तल्लीन है। मालूम नहीं कि इसे अपर पक्षने अपने अभिप्रायकी पुष्मि कैसे समझ लिया। यह वचन तो उनको उद्देश्यकर कहा गया है जो निश्चयको नहीं जानले (नहों अनुभवते ) और नाना वेषधरकर मोक्षमार्गी बनते है।
५. अपर पक्षने सन्मतितकको माया १० 'दम्वद्वियवत्तवं' इत्यादिको उद्धतकर अपने अभिशयकी पुष्टि करनी चाही है, किन्तु यह माथा वस्तुविचारक प्रसंगमें आई है और यहां मोक्षमार्गको दृष्टिसे विचार हो रहा है, इसलिए यह यहाँ प्रयोजनभूत नहीं है। मोक्षमार्गमें किसका आलम्बन लेकर तन्मय परिणमन द्वारा मुक्ति प्राप्त होती है यह विचार मुख्य है। इसमें सन्देह नहीं कि वर्तमान में संसारो आत्मा पर्यायष्टि रागो, द्वेषी भी है और द्रव्यार्थिकदृष्टिसे ज्ञायकस्वभाव भी है। ऐसो अवस्थामें इस जीवके राग-ष आदिसे मुक्त होनेका उपाय क्या ? अपने को सतत रागीद्वे पो अनुभव करनेसे तो उनसे मुक्ति मिलेगो नहों। उसे इनसे मुक्ति पाने के लिए कोई दूसरा उपाय करना होगा। इस बात को ध्यानमें रखकर आचार्यान उस मार्गका निर्देश किया है जिसपर चलकर अनन्त तीर्थंकरों और दुसरे महापुरुषोंने मुक्ति प्राप्त की है। यह मार्ग क्या है इसका निर्देश करते हुए आचार्य कुन्दकुन्द समपसारमें लिखते है
घबहारोऽभूयस्थो मयत्यो देसिदो दु सुखणओ ।
___ भूथरथमस्सिदो खलु सम्माइट्टी हवइ जीवो ।।११।। व्यवहारनय अभूतार्थ है और शुद्धनय भूतार्थ है ऐसा जिनदेवने कहा है। जो जीव भतार्थका आश्रय लेता है वह नियमसे सम्यग्दृष्टि है ।।११।। इसी तथ्यको पं० ०५० वि के निश्चयपंचाशतमें इन शब्दों में स्पष्ट किया गया है
प्यवहारोऽभूतार्थो मूतार्थो देशितस्तु शुद्धनयः ।
शुद्धनग्रमाश्रिता ये प्राप्नुवन्ति यातयः पदं परमम् ।। आशय पूर्वोक्त हो है। आचार्य कुन्दकुन्द करुणाभावसे रमणसारमें लिखते है
एक्कु खणं विचितेइ मोक्खणिमितं णियप्पसहावं । अणिसं बिचित्तपावं बहुलालावं मणे विचिंतेइ ।।५०॥