Book Title: Jaipur Khaniya Tattvacharcha Aur Uski Samksha Part 2
Author(s): Fulchandra Jain Shastri
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

View full book text
Previous | Next

Page 394
________________ ७६४ जयपुर (खानिया ) तत्व जो कोई सिद्ध हुए हैं वे भेदविज्ञानसे सिद्ध हुए हैं और जो कोई बँधे हैं वे उसीके अभाव से बँधे है । वीरसेन स्वामी आत्मज्ञानी महापुरुष थे । भला उन्हें उक्त वचन लिखते समय आगम के इस मूल अभिप्रायका विस्मरण कैसे हो सकता था । यदि अपर पक्ष इस वचन के प्रकाश में उक्त बचनका अर्थ करेगा तो उसे यह समझने में देर नहीं लगेगी कि निश्चयमूलक सम्यक् व्यवहारको ध्यान में रख कर ही उक्त वचन लिखा गया है। जैसा कि उनके इस कथनसे नळे प्रकार समर्थन होता है- पुण्णकम्मबंधाथीणं सव्वाणं मंगलकरणं जुतं ण मुणीणं कम्मऋषयकं क्खुचाणमिदिण बोजु, पुण्णबंधउपडि बिसेसाभावादो, मंगलस्सेत्र सरागसंजमस्स विपरिच्चागपसंगाड़ो । यदि कहा जाय कि पुण्यकर्म के बाँधने के इच्छुक देशप्रतियोंको मंगल करना युक्त है, किन्तु कर्मोंके are sure मुनियों को मंगल करना युक्त नहीं है, सो ऐसा कहना भी ठोक नहीं है, क्योंकि पुण्यबन्ध के हेतुपको अपेक्षा उनमें कोई विशेषता नहीं है। अन्यथा मंगलके समान उनके सरागसंयम के भी त्यागका प्रसंग प्राप्त होता है । यह वचन बड़ा महत्व रखता है। इसका प्रारम्भ इस ढंग से किया गया है जिससे यह मालूम पड़ता है कि देशी पुण्यकर्म बाँचने के इच्छुक होते हैं। किन्तु इस वचनका समाधान जिस ढंगसे किया गया है उससे यह स्पष्ट हो आता है कि चाहे वीतरागी मुनि हों या देशाती, अन्तरंग अभिप्राय दोनोंका एक ही प्रकारका होता है। तात्पर्य यह है कि जिस प्रकार वीतराग साधु पुण्यबन्धके अभिप्रायवाले नहीं होते वैसे देशप्रती भी नहीं होते। इस वचनसे जिन तथ्योंपर स्पष्ट प्रकाश पड़ता है के ये हैं (क) चौतरागी मुनि और देशदतो दोनों ही पुण्यबन्धके अभिप्रायवाले नहीं होते । (ख) उनका लक्ष्य स्वभावप्राप्ति रहता है । (ग) जितने अंश में स्वभावप्राप्ति होती है, कर्मक्षपणा उतने ही अंशमें होती है । (घ) देशव्रत या सरागसंयम आदि कर्मक्षपणा हेतु न होकर पुण्यबन्धके हो हेतु है । (ङ) आचार्य वीरसेनने उक्त 'ण च ववहारणओ चप्पलओ' इत्यादि वचन व्यवहारतयकी मुख्यतासे लिखा है जो अपने साथ होनेवाले निश्चयको क्या महिमा है इसको प्रसिद्धि करता है । अन्यके कार्यको अन्यका कहना यह उपचरित व्यवहारका मुख्य लक्षण है । २. अपर पक्षने दूसरा उद्धरण पं० नं० पं० बि० के निश्चय पंचाशत्का दिया है। किन्तु इस वचनमें आचार्यने स्वयं इस तथ्य को स्वीकार कर लिया है कि जिसके द्वारा निश्चयकी प्रसिद्धि हो, व्यवहार उसीका नाम है और इसी कारण व्यवहारनयसे उन्होंने इसे पूज्य कहा है। वस्तुतः यह श्लोक समयसार गाथा ८ के प्रकाशमें लिखा गया है। अतएव इस बच्चन के ज्ञाशयको ग्रहण करते समय आचार्य अमृतचन्द्रके इस कथनको सदा ध्यान में रखना चाहिए— एवं उन्लेच्छस्थानीयत्वाज्जगतो व्यवहारनयोऽपि म्लेच्छभाषास्थानीयत्वेन परमार्थप्रतिपादकत्वादुपन्यसनीयः अथ च ब्राह्मणो न म्लेच्छितव्य इति वचनाद् व्यवहारनयो नानुसर्तव्यः । इस प्रकार जगत् म्लेच्छ स्थानीय होनेसे और व्यवहार नय भी म्लेच्छभावास्थानीय होनेसे बह् परमार्थको कहनेवाला हूँ, इसलिए व्यवहार नय स्थापित करने योग्य है । किन्तु ब्राह्मणकोले नहीं ही जाना चाहिए इस वचनसे बहू ( व्यवहारनय) अनुसरण करने योग्य नहीं है- यह सिद्ध होता है ।

Loading...

Page Navigation
1 ... 392 393 394 395 396 397 398 399 400 401 402 403 404 405 406 407 408 409 410 411 412 413 414 415 416 417 418 419 420 421 422 423 424 425 426 427 428 429 430 431 432 433 434 435 436 437 438 439 440 441 442 443 444 445 446 447 448 449 450 451 452 453 454 455 456 457 458 459 460 461 462 463 464 465 466 467 468 469 470 471 472 473 474 475 476