Book Title: Jaipur Khaniya Tattvacharcha Aur Uski Samksha Part 2
Author(s): Fulchandra Jain Shastri
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur
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लियर सानिया) तस्वचर्चा इस प्रकार पापोंसे निवृत्त होना ही है तथा सामायिक व दोस्थापना संयम अथवां चारित्र है पारित्र तो मोक्षमार्ग तथा संवरका कारण है, जैसा कि मोक्ष शास्त्रमें कहा गया है। फिर व्रतोंको रागभाव कहना कैसे आगमसंगत हो सकता है। सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्गः ।
---तस्वाथसूत्र १, अर्थ-सम्यग्दर्शन-ज्ञान-बारित्र ये तीनों मिलकर मोक्षका मार्ग है अर्थात् साधन है । स गुप्तिसमितिधर्मानुप्रेक्षापरिषहजपचारित्रैः ।
--१० सू० २,२ अर्थ-गुप्ति, समिति, धर्म, अनुप्रेक्षा, परिषहजय और पारिनके द्वारा संवर होता है । सामायिकछेदोपस्थापनापरिहारविशुद्धिसूक्ष्म साम्पराययथाण्यातमिति चारित्रं ॥९, १८॥
सामायिक, छेदोपस्थापना, परिहारविशुद्धि, सूक्ष्मसाम्पराय और यथावात यह पाच प्रकारका चारित्र है।
इस प्रकार यह सिद्ध हो जाता है कि व्रत विकल्प भी नहीं है और राग भी नहीं है, किन्तु हिंसादि पापोंके रागके त्यागरूप है। जिनको हिसा आदि पापोंसे राग होता है वे हो यह कहकर कि हिंसा आदि पापोंसे निवृत्ति (त्याग) तो राग है, बिकल्प है, मानव बन्धका कारण है। स्वयं यत घारण नहीं करते और चारित्रवान पुरुषोंका आदर आदि भी नहीं करते । अथका यह कह देते है कि हमारी क्रमबद्ध पर्यायों में व्रत धारण करना पड़ा हुआ हो नहीं है, पर्याय मागे पीछे हो नहीं सहप्ती, फिर हम पापों को जैसे छोड़ें अथवा सर्वशने हमारी वतधारणस्प पर्याय देखी ही नहीं तो हम पापोंको कैसे त्याग कर सकते हैं।
यदि व्रतोंको राग माना जायगा तो वे व्यवहारधर्म नहीं हो सकते, क्योंकि व्यवहारधर्म तो निश्चयधर्मका साधन है । जैसा कि श्री अमतचन्द सरिने पंचास्तिकाय गाथा १६० व १६१ की टीकामें कहा है और बृहद्व्यसंग्रह गाथा १३ की टीकाम यह कहा है कि जो निश्चय व व्यवहारको साध्य साधनरूपसे स्वीकार करता है वह सम्यग्दृष्टि है। अतः व्रत व व्यवहारधर्म रागांशरूप नहीं है । विशेष ध्याझ्याके लिये प्रश्न नं. ३,४ व १३ पर हमारे प्रपन देखने चाहिये ।
श्री प्रवचनसार गाथा १ की टोकामें जीवके शभ, अशुभ व शुद्ध तीन भाव कहे है। जिस समय जो भाव होता है उस समय वह जीव उस भावरूप हो जाता है। इस गाधाको टीकामें श्री जयसेन आचार्यने कहा है कि पहले तीन गुणस्थानोमें अशुभोपयोग, अविरत सम्यग्दृष्टिसे प्रमससंयत गुणस्थानतक शुभोपयोग और उसके पश्चात् अप्रमत्तसंयतसे क्षीगमोह गुणस्थानतक शुद्धोपयोग होता है।' बौथे गुणस्थानमें सम्यग्दर्शनरूप शुद्ध भाव है और कषायरूप अशुद्धभाव है इन दोनों शुद्धाशुद्ध भावोंके मिन्त्रितरूप उपयोगको शुभोपयोग कहा है । इसी प्रकार यथासंभव पांचवे, छटे गुणस्थानमें भी शुसाशुर मिश्रित भावरूप शुभोपयोग जानना चाहिये। यदि शुभोपयोगको शुद्धाशुद्ध भावरूप न माना जावेगा तो शुभोपयोग मोक्षका कारण नहीं हो सकेगा। किन्तु श्री अमृतचन्द्राचार्यन प्रवचनसार गाथा २५४ टोकामें शुभापयोगको मोक्ष का कारण कहा है
गृहिणां तु समस्तविरसेरभावेन शुद्राम-प्रकाशनस्याभावात्मपायसद्भावाप्रवतमानोऽपि स्फटिकसंपर्कणाकतेजस इवैधसी रागसंयोगेनाशुद्धात्मनोनुभवनात् क्रमप्त: परमनिर्वाणसौख्यकारणत्वाच्च मुख्यः।