Book Title: Jaipur Khaniya Tattvacharcha Aur Uski Samksha Part 2
Author(s): Fulchandra Jain Shastri
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur
View full book text
________________
शंका १६ और उसका समाधान
७६१
किन्तु जो रागादि विभावभावों और बद्धस्पृष्टत्वादि उपचरित भावोंसे मुक्त अपने आत्माको प्रसिद्धि करना चाहता है उसे उक्त मार्गपर न चलकर स्वभावके अवलम्बनको हो सर्वस्व मानना होगा। यह है समयसार के कथनका प्रयोजनभूत सात्पर्य उसमें निश्चयनवको प्रतिषेधक स्वभाव और सद्भूत असद्भूत दोनों व्यवहारको प्रतिषेष्यस्वभाव ( समयसार गाथा २७२ में क्यों कहा यह स्पष्ट हो जाता है। इसका अर्थ उन दोनों नमो विषयको अस्वीकृति नहीं है । यदि ऐसा होता तो आचार्य मात्र एक जोवपदार्थका ही विवेचन करते, शेष अजीवादि आठ पदार्थोंका विवेचन ही नहीं करते और न ही याचार्य अमृतचन्द्र 'नवतवगतत्वेऽपि यदेवं न मुञ्चति ( स० क० ७ ) यह वचन हो लिखते । स्पष्ट है कि ऐसा लिखकर उक्त दोनों बचाने अनेकान्तस्वरूप वस्तुको अपनी दृष्टि में रखा है, उसका निषेष नहीं किया। अपर पक्ष 'जो नय परपक्षका निराकरण नहीं करते हुए ही अपने पक्ष के अस्तित्वका निश्वय करने में व्यापार करते है उनमें समीचीनता पाई जाती है।' इस कथनको सार्थकता इस दृष्टिसे है । उसे हम अस्वीकार नहीं करते । हम हो क्या कोई भी व्यक्ति अस्वीकार नहीं कर सकता ।
किन्तु आत्मा में मोक्षमार्गको प्रसिद्धि निश्चयनय ( निश्चयनयके विषय ) के अव लम्बनसे ही हो सकती है। न तो प्रमाणके अवलम्बन से होती है और न ही व्यवहार के अवलम्बनसे होती है । यही कारण है कि मोक्षमार्गमें इसोको मुख्यता दी गई है । यसः अन्य सब हेय है, स्वभावका अवलम्बन हो उपादेय है, क्योंकि स्वभाव के अवलम्बन द्वारा तन्मय होकर परिणत होना ही मुख्य कार्य है, अतः निश्चयमय प्रतिषेधक स्वभाववाला होनेसे अन्य सबका प्रतिषेध करता है यह सिद्ध हो जाता है। इसी तथ्य को स्पष्ट करते हुए पद्मनन्दिपंचविंशतिका निश्वयपंचाशत् अधिकार में लिखा हैsa at मुक्तो मनेरमदात्मानम् । याति यदीयेन पथा तवेव पुरमश्नुते पान्धः ॥४८॥
जो जीव सदा आत्माको कमसे बस देखता है वह कर्मवद्ध ही रहता है, किन्तु जो उसे मुक्त देखता ( अनुभवता ) है वह मुक्त हो जाता है। ठोक है— पचिक जिस नगरके मार्ग जाता है उसी नगरको वह प्राप्त होता है ||४८६||
शय यह है कि जैसे बम्बई और कलकत्ता जानेवाले दोनों मार्ग अपनी-अपनी स्थिति सही है, जो बम्बई जाना चाहता है उसके लिए कलकत्ताका मार्ग हेय होनेसे निषिद्ध है और बम्बईका मार्ग उपादेय होनेसे उसका निषेध करनेवाला है उसी प्रकार प्रकृतमें जानना चाहिए।
'सम्यग्दृष्टि जीव यह नय सच्चा है और यह नय झूठा है ऐसा विभाग नहीं करते' यह ठीक है। किन्तु यह नय उपचरित धर्मद्वारा वस्तुको विषय करता है और यह नय जिस वस्तुका जो धर्म है उस द्वारा ही उस वस्तुको त्रिषय करता है, ऐसा विभाग तो करते हैं, अन्यथा मिट्टी के कर्तृत्व धर्मको कुम्भकारका स्वीकार कर लेनेपर मिट्टी और कुम्भकार में एकत्व प्राप्त होने से पदार्थ व्यवस्था हो नहीं बन सकती । यदि कहा जाव कि मिट्टोका कर्तृत्व धर्म भी घटकार्यको करता है और कुम्भकारका कर्तृत्व धर्म भी उसी घटकार्यको करता है तो एक कार्यके दो कर्ता मानने पड़ते है जो जिनागम के विरुद्ध है। अतः जिस रूप में जिस नयका जो विषय हूँ उस रूपमें उसे स्वीकार करनेवाला ही यह नम सत्य है ऐसा यहाँ समझना चाहिए ।
१६