Book Title: Jaipur Khaniya Tattvacharcha Aur Uski Samksha Part 2
Author(s): Fulchandra Jain Shastri
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 390
________________ जयपुर (खानिया ) तत्त्वचर्चा समाधान----नहीं, क्योंकि वे दोनों परस्पर एक दूसरेका उपसर्पण करते हैं, इसलिए आगममें उन्हें बन्धकी अपेक्षा एक कला है। वास्तवमें वे दोनों लक्षणको अपेक्षा अत्यन्त भिन्न है इस प्रकार उन दोनोम द्रव्यभेद कहा है। यह बागम वचन है। इससे सिद्ध है कि जीवमें कर्म बद्धस्पष्ट है यह कथन उपचरितही है। पह निराधार कल्पना भी नहीं है, क्योंकि दूध और पानी के समान संसार अवस्थामें जानावरणादि परिणामसे परिणत कर्म राग-द्वेषादि परिणामसे परिणत जीवके और गग-द्वेषादि परिणामसे परिण जीव जानावरणादि परिणामसे परिणत कर्मके प्रति उपसर्पण करते हुए देखे जाते है। इसे ही आचार्य यहाँ 'एकत्वपरिणाम' पदसे व्यवहुत कर रहे हैं । जीब और कमका हममें गन्न अन्य कोई परिमाइन नहीं समझा। समयसार गाथा १४ की टोकामे आचार्य अमृतचन्दने 'भतार्थ' पद द्वारा जिस बद्धपष्टताका स्पष्टीकरण किया है वह यही है, अन्य नहीं। देखो, इस रूपसे जो कोई भव्य बनस्पसाको जानेगा वह लक्षणभेदसे दोनोंक भिन्न मी अवश्य जानेगा। और जो कोई भव्य जीव लक्षणभेदसे दोनोंको भिन्न-भिन्न जानेगा उसको दृष्टि स्वभावरूप तन्मय होकर परिणमे बिना रह ही नहीं सकती। आचार्य कहते है कि जीवमें कम बद्ध है ऐसा विकल्प भी रागके उत्थान पूर्वक होनेसे चेतन आत्माका निर्मल परिणाम नहीं है और उसी प्रकार जोत्रमें कर्म अबद्धस्पृष्ट है ऐसा विकल्प भी रागके उत्थानपूर्वक होनेसे चैतन-आत्माका निर्मल परिणाम नहीं है। ये दोनों हो नयपक्ष है । जो आत्मामें अपने-अपने पक्षकी प्रसिद्धि करते हैं। आत्मामें कोन धर्म उपचरित रूपसे क्यों स्वीकार किया गया है और कोन धर्म उसो आत्माकं पर्यायस्वभावको प्रसिद्ध करता है और इसी प्रकार कौन धर्म उसी आत्माके द्रव्य स्वभावको प्रसिद्ध करता है, नम दृष्टिसे इसे पृथक-पृथक् जानकर अनेकान्तस्वरूप आत्माको प्रसिद्धि करना अन्य बात है। किन्तु उनमें से उपचरित धर्मको स्वीकार करनेवाले और पर्याय धर्मको स्वीकार करनेवाले विकल्पको दूरसे ही स्थागकर तथा द्रव्यस्वभावको स्वीकार करनेवाले विकल्पमे भी हेय बुद्धि रखते हुए अपने में निर्विकल्प साक्षात् समयसारस्वरूप आत्माकी प्रसिद्धि करना अन्य बात है। इसी तथ्यको ध्यानमें रखकर समयसार गाथा १४२ की बात्मत्याति टीकाम आचार्य अमृतचन्द्र लिखते है यः किल जीवे बद्धं कमेति यश्च जीवबन्द कति विकल्पः स द्वितयोऽपि हि नयक्षप । य पुचैनमशिक्षामति स एवं सकलविकल्पासिंक्रान्सः स्वयं निर्विकल्पकविज्ञानघनस्वभावो भरवा साक्षास्समयसारः सम्भवति । 'जीवमें कर्म बद्ध है ऐमा विकल्प तथा 'जीवमें कर्म अबद्ध है' ऐसा विकल्प ये दोनों हो नयपक्ष है। जो नियमसे उभय पक्षका अतिक्रम करता है वह समस्त विकल्पोंका अतिक्रम करके समस्त विकल्पोंसे अतिक्रान्त होकर स्वयं निविकल्प एक विज्ञान वनस्वभावरूप होता हुमा साश्चात् समयसार होता है। अनेकान्तस्वरूप आत्माको स्वीकार करके निविकल्प विज्ञानघनस्वभाव आत्माको प्रसिद्धि कैसे होती है मह बतलाना समयलार गाथा १४१ आदिका प्रयोजन है । ६९ से लेकर 48 तकके कलशांकी रखना भी इसी प्रयोजनको ध्यानमें रखकर हुई है। यहां उनकी रचनाका अन्य प्रयोजन नहीं है। अनेकान्तस्वरूप वस्तुको प्रसिद्धि के कालमें सत-असत आदि दो-दो धर्म मुगलोंमसे एक-एक धर्मद्वारा बस्तुको प्रसिद्धि करनेवाला एकएक नय सापेक्षमावसे अपने-अपने विषयभूत धर्मद्वारा वस्तु की प्रसिद्धि करे इसका निषेध कौन करता है। माचार्य समन्तभद्रनं 'निरपेक्षा नया मिथ्या सापेक्षा वस्तु सेऽर्थकृत् ।।१०८॥ घचन इसी अभिप्रायसे लिखा है । जिसका अनेकान्तस्वरूप वस्तुको सिद्धि करना मुख्य प्रयोजन है वह यदि नय दृष्टिको मुख्य कर तत्स्वरूप बस्तुको सिद्धि करना चाहता है तो उसे इसी मार्गका अवलम्बन लेता होगा। इसमें सन्देह नहीं।

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