Book Title: Jaipur Khaniya Tattvacharcha Aur Uski Samksha Part 2
Author(s): Fulchandra Jain Shastri
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur
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जयपुर ( खानिया ) तस्वचर्चा इमसे यह बात स्पष्ट हो जाती आगमा महासभामा वि.१२. भेद तथा उनके उसर भेद भिन्न दृष्टि किये गये हैं और समयमार झादिम निश्चयनय और.ज्यवारनय ये दो भेद भिन्न दृष्टिसे किये गये है। समयमार आदि अध्यात्मशास्त्राम क्या दृष्टि अपनाई गई है इसका स्पष्टोफरण नमचक्रसंग्रह पू०८८ को इस गाथासे हो जाता है
तच्चं पि हेअभियर हेयं खलु भणिय ताब परदवं ।
णियदव्यं पि य जाणसु हेयादेयं ष णयजोगे ।।२६०।। तत्त्व हेय और उपादेयके भेदसे दो प्रकारका है । पर द्रव्य तो नियमसे हेय ही कहा है। निज द्रव्यका भी नययोगसे हेय और उपादेय जानो ॥२६०।। निज धर्म क्या हेय है और क्या उपादेय है इसका खुलासा करते हुए वह्नों लिखा है
मिच्छा-मरागभूयो हेग्रो आदा हवेइ णियमेण ।
तश्विरीयो झेओ गायत्रो सिद्धिकामेण ॥२६॥ मिथ्यात्व और सरागरूप आत्मा नियमसे हय है। सिद्धि के इच्छुक पुरुषको उमसे विपरीत आत्मा ध्येय जानना चाहिए ।।२६२।। इगी तथ्यको समसान्में इन शब्दोंमें स्पष्ट किया है--
पुग्गलकम्मं रागो तस्स विधागोदओ हवदि एसो।
ण दु एस मम भावो जाणगमायो ? अहमिको ॥१९५।। राग पुद्गलकर्म है, उसका विषाकरूप उदय यह है, यह मेरा भाव नहीं, मैं तो निश्चयसे एक जायकभाव हूँ॥१९९।।
इसको टोकामें आचार्य अमृतचन्द्र लिखते है
अस्ति किल रागो नाम पुद्गलकर्म, तदुदनविपाकप्रभवोऽयं रागरूपो भाषः, म पुममम स्वभावः । एष रंकोस्कीणेकज्ञायकभावोऽहम् ।
वास्तव में राग पुद्गलयम है, उसके उदयके विपाकसे उत्पन्न हुआ यह रागभाव है । यह मेरा स्वभाव नहीं है। मैं तो यह रंकोत्कीर्ण एक ज्ञायकभाव हैं।
इससे अध्यात्ममें निश्चयन्यका विषय क्या है यह स्पष्ट ज्ञात हो जाता है। नयचक्रसंग्रहमें न्यायिक नयके जिन दस भेदांका निर्देश किया है उनमें एक परम भावग्राही व्यापिकनय मी है। उसका स्वरूप निर्देश करते हुए वह लिखा है
गेण्हह दवसहापं असुद्ध-सुद्धोदयारपरिवत्तं ।
सो परमभावगाहो णायचो सिद्रिकामेण ।। १९९।। ओ अशुद्ध, शुद्ध और उपचारसे रहित मात्र द्रष्यस्वभावको ग्रहण करता है, शुद्धिके इच्छुक पुरुषों द्वारा वह परम भावनाही द्रव्याथिक नय जानने योग्य है ।।११।।
इससे यह बात स्पष्ट हो जाती है कि अध्यात्म निश्चयनयमें आगममें प्रतिपादित द्रव्यार्थिक नयके सभी भेदोका अन्तभाव नहीं होता। मोक्षमागको दृष्टि से उस में तो मात्र जायकस्वभाव आत्माको अपेक्षा परम भाग्राही द्रव्याथिकनयका ही ग्रहण का है। इसके सिवा द्रव्यानिकन म, पर्यायाधिकनय और