Book Title: Jaipur Khaniya Tattvacharcha Aur Uski Samksha Part 2
Author(s): Fulchandra Jain Shastri
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 389
________________ शंका १६ और उसका समाधान ७५९ उपचार के जितने भी भेद-प्रभेद है उन सबका व्यवहारनय में अन्सभ किया गया है। इतना अवश्य है कि जहाँ रागादि अज्ञानभावों का आत्माको कर्ता कहा गया है बही वह कथन अज्ञानभाव से उपयुक्त आत्मा को अपेक्षा ही किया गया है। ज्ञानभावसे तन्मय होकर परिणत आत्मा तो एकमात्र ज्ञानभावका ही कर्ता है। यहां ज्ञ भाव स्वभाव के अर्थ गृहोत हुआ है इतना विशेष जानना चाहिए । इतने विवेचन यह स्पष्ट हो जाता है कि अपर पद्मने जो द्रव्याधिकनको निश्वयनय और पर्यार्शनयमाको व्यवहारलय कहा है वह ठीक नहीं है। पंचास्तिकाय गाथा ४ में जो दो भेद चिकन और चिकन किये गये है उनका उस प्रकार मंद करनेका प्रयोजन भिन्न है। वहाँ पदार्थ व्यवस्थाकी दृष्टि मुख्य है और यहाँ नयाँके निश्चयनय और व्यवहारनय इन भेक करने में मोक्षमार्ग की ऋष्टि मुख्य है। परमागम में यथास्थान प्रयोजनको ध्यान में रखकर ही नयों की योजना को गई है। ऐसा एक भी नय या उपनयका भेद नहीं है जिसको प्रयोजनके बिना योजना की गई। हो । उदाहरणार्थ चौबास सोर्थकरोम किसीको पीतवर्ण, किसोको शुक्लवर्ण और किसोको हरितवर्ण आदि लिखा है सो ग्रह जिस प्रयोजनको ध्यान में रखकर लिखा गया है उसी प्रयोजनको ध्यान में रखकर उसको स्वीकार करनेवाले बसद्भूत व्यवहारनयकी भी योजना की नई है। यहाँ असनका अर्थ स्पष्ट है, जीव में वर्ण नहीं हैं. जीव उसको बनानेवाला भी नहीं है। फिर भी उसे जीवका कहना यह असद्भूत व्यवहारबचन है। इसी प्रकार सर्वत्र प्रयोजनको व्यानम रखकर नयाँका विचार कर लेना चाहिए । यहाँ अपर पक्षने समयसार गाथा १४१ तथा समयसार कलम १६६ से १८९ के आधार से जिन विविध धर्मयुगलों को चरचा की है उनके विषय में भी वही स्वाय लागू कर लेना चाहिए। कौन धर्म ate सद्भूत हैं और कौन सद्भूत नहीं हैं ऐसा करने से एक और दो द्रव्यों पार्थक्य स्पष्ट प्रतिभासित होजाता है। ऐसा यथार्थ ज्ञान कराना ही नयोंका प्रयोजन हैं । एक द्रव्यके गुण-धर्मको दूसरे द्रव्यका स्वधर्म बतलाना यह नयोंका प्रयोजन नहीं है । यह नयज्ञानकी अपनी विशेषता है कि वह उपचरित धर्मको उपचरितरूपसे, विभावधर्मको विभावरूपसे और स्वभावधर्मको स्वभावरूपसे हो प्रसिद्ध करता है । जिसका जो धर्म हो उसकी उसमें नास्ति कही जा यह तो हमारा कहना है नहीं । किन्तु जिस वस्तुका जो धर्म हो न हो उसको उसमें भूतार्थ-यथार्थ से सिद्धि की जाय इसे हम हो क्या अपर पक्ष भी स्वीकार नहीं कर सकता । जैसे कर्मकी अपेक्षा जीव बद्धस्पृष्टता घर्म नहीं है, क्योंकि व्यवहारसे जिस प्रकारकी वस्पृष्टता पुद्गलको मुद्गल के साथ बनती है वैसो बढस्पृष्टता मुर्त पुद्गलकी अमूर्त जीवक्रे साथ नहीं बन सकती । इस तथ्यको स्पष्ट करते हुए तत्त्वार्थरलोकवातिक्रमं लिखा है जीव-कर्मणोः अन्धः कथमिति चेत् ? परस्परं प्रदेशानुप्रवेशान स्वकल्यपरिणामात् तयोरेकद्रव्यानुपपत्त ेः । 'चेतनासनादेखी अन्धं प्रत्येकतां गत इति वचनात्तयोरेकत्वपरिणामहेतुन्धाऽस्तीति चेत् न, उपसर्पतस्तदेकत्ववचनात् । भित्री लक्षणतोऽत्यन्तमिति नृत्यभेदाभिधानात् । 1 शंका- जीव और कर्मका बन्ध कैसे है ? समाधान - परस्पर प्रदेश के अनुप्रवेश से उनका बम्ध है, एकल परिणामरूपसे उनका बन्ध नहीं है, क्योंकि दोनों एक द्रव्य नहीं हो सकते । शंका- 'चेतन और अचेतन ये दोनों बन्धके प्रति एकको प्राप्त है इस प्रकारका वचन होने से उन दोनों का एकत्व परिणामका हेतुभूत बन्ध ?

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