Book Title: Jaipur Khaniya Tattvacharcha Aur Uski Samksha Part 2
Author(s): Fulchandra Jain Shastri
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur
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शंका १६ और उसका समाधान
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च्यते । अर्पितं चानवितं चापितानपिंते । तास्थ सिद्धेरपितानर्पित सिद्धेः, नास्ति विरोधः । तथथा - एकस्य देवसम्य पिता पुत्री भ्राता भागिनेय इत्येवमादयः सम्बन्धा जनकत्वजन्यस्त्रादिनिमित्ता न विरुध्यन्ते, अर्पणाभेदान् । पुत्रापेक्षया पिता, पित्रपेक्षया पुत्र इत्येवमादिः । तथा द्रव्यमपि सामान्यापणया नित्यम्, विशेषापणयाऽनित्यमिति नास्ति विरोधः । तच सामान्य विशेषौ कथञ्चित् भेदाभेदाभ्यां व्यवहार हेतू भवतः ।
प्रयोजनवदा अनेकान्तात्मक वस्तुके जिस किसी धर्मकी विवक्षा द्वारा प्राप्त हुई प्रधानताका नाम अर्पित है। अर्पित अर्थात् उपनीत यह इसका तात्पर्य है। उससे विगरीत अर्पित है। प्रयोजन न होनेसे सत्की भी अविवक्षा होती है। उपसर्जनी भूल का नाम हो अनवित है। इन दोनोंका अतिं व अनपितं व अर्पितानपि ऐसा इन्द्र समान है। उनसे होनेवाली सिद्धि ही अर्पितानतिसिद्धि है, इसलिए कोई विशेष नहीं है । यथा - एक देवदत्त के जनकत्व तथा जन्यस्त्र आदि निमित्तक चिता, पुत्र, भ्राता और भागनेय इत्यादि सम्बन्ध अर्पणाभेदसे विरोधको प्राप्त नहीं होते। पुत्रकी अपेक्षा पिता है, पिताको अपेक्षा पुत्र हैइसी प्रकार और भी उसी प्रकार द्रव्य भी सामान्यको अर्पणाको अपेक्षा नित्य है और विशेषको अर्पणा को पेपर अनित्य है। इसलिए कोई विरोध नहीं है। वे सामान्य और विशेष कथंचित् भेद और अभेदके द्वारा व्यवहारके हेतु होते हैं 1
इस विषय में तत्त्वार्थवालिक और तत्वार्थश्लोकवातिकका भी यही आशय । आप्तमीमांसा कारिका ७५ पर दृष्टिपात करनेपर उसका भी यही आशय प्रतीत होता है। इस तथ्यको स्पष्टरूपसे समझने के लिए अष्टमस्रोका यह कथन ध्यानमें लेने योग्य है
न हि कर्तुस्वरूपं क्रमपिक्षं कर्मस्वरूप या कपेक्षम्, उमयासस्त्र प्रसंगात् । नापि कर्तृत्वव्यवहारः कर्मव्यवहारो वा परस्परानपेक्षः कर्तृश्वस्य कर्मनिश्वयावसेयत्वात् कर्मस्वस्थापि कर्तृप्रतिपतिसमधि
गम्यमानत्वात् ।
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कर्ताका स्वरूप कर्मसापेक्ष नहीं है तथा कर्मका स्वरूप कर्तृसापेक्ष नहीं है. क्योंकि इस प्रकार दोनोंके असवका प्रसंग प्राप्त होता है। किन्तु कर्तृत्वव्यवहार और कर्मत्व व्यवहार परस्पर निरपेक्ष भी नहीं है, क्योंकि कर्तृत्बका ज्ञान कर्मके निश्चयपूर्वक होता है । उसी प्रकार कर्मत्वा भी ज्ञान कर्ता के निश्चयपूर्वक होता है ।
इससे स्पष्ट ज्ञात होता है कि जिस द्रश्य में सत्-असत् आदि जिसने धर्म उनका स्वरूप स्वसः सिद्ध है। उनका व्यवहार परस्परकी अपेक्षा से होता है इतना अवश्य है और इस प्रकार परस्पर सापेक्षभाव से सिद्धि करनेवाला जो नय है यहो व्यवहारमय है । अतएव अपर पक्षका यह लिखना आगम, अनुभव और तर्कके विरुद्ध है कि एक वस्तुमें विवक्षाभेदसे दो प्रतिपक्ष धर्म पाये जाते हैं।' किन्तु उसके स्थान में यही निर्णय करना चाहिये कि प्रत्येक वस्तुमें जितने भी धर्म पाये जाते हैं उनका स्वरूप स्वतः सिद्ध होता है ।
२. दूसरा प्रश्न है कि 'क्या प्रत्येक धर्मकी विवक्षाको ग्रहण करनेवाला नय है।' समाधान यह है कि किसो विवक्षाको ग्रहण करनेवाला नय नहीं कहलाता, किन्तु नाना धर्मयुक्त वस्तुमें प्रयोजन वश एक धर्मद्वारा वस्तुको जाननेवाला श्रुतविकल्प नय कहलाता है। अपर पक्ष स्वामी कात्तिकेयानुप्रेक्षाको जो २६४ वीं गाथा उद्धृत को है उससे भी यही सिद्ध होता है। उक्त गाथाका तात्पर्य लिखते हुए अपर पक्ष स्वयं इन शब्दोंको लिखकर हमारे उक्त अभिप्रायको स्वीकार किया है। उस पक्ष द्वारा लिपिबद्ध किये गये ये शब्द