Book Title: Jaipur Khaniya Tattvacharcha Aur Uski Samksha Part 2
Author(s): Fulchandra Jain Shastri
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 380
________________ ७५० जयपुर ( खानिया ) तत्त्वचर्चा सुडो सुन्दादेसो णायम्बो परमभावरिसीहिं। चवहारदेसिदा पुणजे दु अपरमे द्विदा भावे ||१२॥ --श्री समयसार अर्थ-जो शुद्धनय तक पहुँच कर श्रद्धावान ये तथा पूर्ण ज्ञान-पारिवान् हो गये हैं उन्हें तो शृतका उपदेश करनेवाला युद्धनय जानने योग्य है और जो जीव अपरम भाव में स्थित है अर्थात श्रद्धा तथा ज्ञानचारित्रके पूर्ण भावको नहीं पहुंच सके हैं-साधक अवस्थामें ही स्थित है वे पुरुष व्यवहारद्वारा उपदेश करने योग्य है। थो अमृतचन्दाचार्य इसको टीका लिखते है कि व्यवहारनय बारहवें गुणस्यान तक प्रयोजनवान् है । टोका यह है __ ये तु प्रथमद्वितीयाध नेकपाकपरम्परापच्यमानार्तस्वरस्थानीयमपरम भावमनुभवंति तेषां पर्यत. पाकोसीर्णजात्यकारीस्वरस्थानीयपरममावानुभवनशून्यस्वादशुद्धवष्यादेशितयोपदर्शिनप्रतिविशिष्टैकभावानेकभावो व्यवहारनयो विचित्रवर्णमालिकास्थानीयत्वात्परिज्ञायमानस्तदात्वे प्रयोजनवान् , तीर्थतीर्थफलयोरिथमेव व्यवस्थितत्वात् । उर्फ च जह जिणमयं पवजह ता मा घवहारणिन्छए मुयह । एकेण विणा छिज्जा तिरथं अण्णेण उण सच्चं ।। अर्थ-जो पुरुष प्रथम द्वितीयादि अनेक पाकोंके परम्परासे पच्यमान अशुद्ध स्वर्णके समान जी आत्माके अनुत्कष्ट-मध्यमभावका अनुभव करते हैं उन्हें अन्तिम ताबसे उतरे हुए शुद्ध सोने के समान उत्कृष्ट भावका अनभव नहीं होता. इसलिए मशद्ध द्रव्यको कहनेवाली, भिन्न भिन्न एक-एक भावस्वरूप अनेक भाव दिखानेकाली व्यवहारनय उस काल प्रयोजनवान है. क्योंकि विचित्र अनेक वर्णमालाके समान जानने में आता। तीर्थ और तीर्थकल की ऐसी हो व्यवस्था है। कहा भी है-यदि तुम जिन मसको प्रवर्तना करना चाहते हो वो परहारनय और निश्चयनय दोनों नयोंको मत छोड़ो, क्योंकि व्यवहारनपके विना तो तोथं (व्यवहारमार्ग) का नाश हो जायगा और निश्वयनयके बिना तत्त्वका नाश हो जायमा । भावार्य-जहाँ तक यथार्थ ज्ञान धबामकी प्राप्विरूप सम्यग्दर्शनको प्राप्ति नहीं हो वहाँ तक तो जिनसे यथार्थ उपदेश मिलता हो ऐसे जिन वचनोंको सुनना, धारण करना तथा जिन वचनोंको कहनेवाले थी जिन गुरुको भक्ति, जिनबिम्द के दर्शन इत्यादि व्यवहार मार्गमें प्रवृत्त होता प्रयोजनवान् है । और जिन्हें थद्वान-ज्ञान तो हुआ है, किन्तु साक्षात् प्राप्ति नहीं हुई उन्हें पूर्वकथित कार्य परद्रव्य का आलम्बन छोड़नेरूप अणुयत-महाव्रतका ग्रहण समिति, गुप्ति और पंव परमेष्ठी का ध्यानरूप प्रवर्तन तथा उसी प्रकार प्रवर्तन करनेवालोंकी संगति एवं विशेष जानने के लिये शास्त्रोंका अम्याम इत्यादि व्यवहारमार्गमें स्वयं प्रवर्तन करना और दूसराको प्रवर्तन कराना ऐसे व्यवहारनयके उपदेश प्रयोजनवान् है। अयवहारनयको कथंचित् असत्यार्य कहा गया है, किन्तु यदि कोई उसे सर्वथा असत्यार्थ जानकर छोड़ दे तो वह शुभोपयोग रूप व्यवहारको ही छोड़ देगा और उसे शुद्धोपयोगको साक्षात् प्राप्ति तो नहीं हुई है, इसलिये उलटा अशुभोपयोग में ही भाकर, भ्रष्ट होकर चाहे जसो स्वच्छारूप प्रवृत्ति करेगा तो वह मरनादि गति तथा परम्परासे निगोदको प्राप्त होकर संसारमै हो भ्रमण करेगा। इसलिये शुद्ध नयका विषय जो साक्षात् शुद्ध

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