Book Title: Jaipur Khaniya Tattvacharcha Aur Uski Samksha Part 2
Author(s): Fulchandra Jain Shastri
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur
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शंका १६ और उसका समाधान आत्मा है उसको प्राप्ति जबतक न हो तबतक पत्रहार भो प्रयोजनवान् है-ऐसा स्याद्वाद मतमें श्री गुरुओंका उपदेश है।
'पत्रहारनवका विषय व्यवहारनयको अपेक्षा सत्य है।' इस बात को श्री अमृतचन्द्राचार्य समयलार गाथा १४ को टोकामें भी कहते है
आत्मनोऽनादिवद्धस्य बद्धस्पृष्टस्वपर्यायेणानुभूयमानताओ बदस्पृष्टवं भूतार्थम् । अर्थ--अनादिकाल से बंधे हुए आत्माका पुद्गल कर्मोंसे बँधने स्पर्शित होने अवस्थासे (ध्यबहारनयसे) अनुभव करनेपर बद्ध-स्पृष्टता भूतार्थ है ।
श्री 4. फूलचन्दने भो अपने लेस्थमें जो प्रेमी अभिनन्दन वन्यमें पृ० ३४५ से २५५ तक प्रकाशित हुआ है उसमें भी व्यवहारनयको सत्य सिद्ध किया है । वे वाक्य निम्न प्रकार है
यदि निश्चय सस्यापिहित है सो वा अली अक्षा दी है। गदि गवतारको अपेक्षासे हो (मी) उसे वैसा मान लिया जाय तो दन्ध-मोशकी चर्चा करना ही छोड़ देना चाहिये । कवियर पं० बनारसीदासजीने ऐसा किया था, पर अन्तमें उन्हें एकान्त निश्चयका त्याग करके व्यवहारकी शरण में आना पड़ा। आचार्य कुन्दकुन्दन जो व्यवहारको अमृतार्थ कहा है यह व्यवहारको अपेक्षा नहीं, किन्तु निश्चयको अपेक्षासे कहा है। व्यवहार अपने अथमें उतना ही सरय है, जितना कि निश्चय ।
आपने लिखा है कि 'निरपेक्षा नया मिथ्या यह वचन वस्तुसिद्धि के प्रसंगमें आया है और प्रकृतम मोक्ष-मार्गकी प्रसिद्धि की जा रही है। अतएव प्रकृत में उसका उपयोग करना इष्ट नहीं है।' किन्तु आपका ऐसा लिखना आगमानुकूल नहीं है। प्रथम तो बस्तुसिद्धिसे हो मोभ-मार्गकी प्रसिद्धि है, वस्तुसिद्धि और मोक्ष-मार्गको प्रसिद्ध दो नहीं हैं। दूसरे मोत्र-मार्गको प्रसिद्धि भी द्वयनयाचीन हो हैं, क्योंकि निश्चयव्यवहार मोक्षमार्ग साध्य-साथकरूप है। इन दोनों में से किसी एकके अभाव में मोक्षकी सिद्धि (प्राप्ति) नहीं हो सकती। इसी बातको धो जगसैन आचार्य भी पंचास्तिकाय ग्रन्थका तात्पर्य बताते हुए टीकाके अन्नमें लिखते हैं
अथैव पूर्वोकप्रकारेणास्य प्राभृतस्य शास्त्रस्य वीतरागस्वमेत्र तात्पर्य ज्ञातव्यं । तच्च वीतरागवं निश्चयध्यपहारनयाभ्यां साध्यसाधकरूपेण परस्परसापेक्षाभ्यासंघ भवति मुक्तिसिद्धये न च पुनर्निरपेक्षाभ्यामिति वार्तिक । तद्यथा-ये केचन विशुद्धज्ञानदर्शनस्वभावशुद्धारमतवसम्यकश्रवानज्ञानानुष्ठानरूपनि मोक्षमार्गनिरपेनं केवल शुभानुष्टारूपं ग्यवहारनयमंत्र मोक्षमार्ग मन्यते तेन तु सुरलोकादिक्लेशपरम्परया संसारे परिभ्रमम्तीति । यदि पुनः शुखात्मानुभतिलक्षणं निश्चयमोक्षमाग मन्यते निश्चयमोक्षमार्गानुष्ठानशक्त्यभावानिश्चयसाधक शुभानुष्ठानं च कुर्वन्ति तहि सरागसम्यग्रयो भवन्ति परम्परया मोक्षं लभन्त इति व्यवहारकान्तनिराकरणमुख्यत्वेन वाक्यद्वयं गतं । अपि केवलनिश्चयनयावलंबिन: संतोऽपि रागादिविकल्परहितं परमसमाधिरूपं शुन्हामानमालभमाना अपि तपोधनाचरणयोग्य पडावश्यकाद्यनुष्ठानं श्रावक'चरणयोग्यं दानपूजाअनुष्टानं च दूषयंते तेप्युभयभ्रष्टाः संतो निश्चयव्यवहारानुष्ठानयोग्यावस्थान्तरमजानन्तः पापमेव यानन्ति । यदि पुनः शुद्धारमानुष्ठानरूपं मोक्षमार्ग तत्साधकं व्यवहारमोक्षमार्ग मन्यन्ते तर्हि चारित्रमोहोदयात् शक्त्यभावेन शुभाशुभानुष्टानरहिता अपि यद्यपि शुन्द्वात्मभावनालापक्षशुभानुष्ठानरसपुरुषसहशा न भवन्ति तथापि सरागसम्यकत्वादिन्यवहारसम्यग्दृष्टयो भवन्ति परम्परया मोक्षे च लमंते