Book Title: Jaipur Khaniya Tattvacharcha Aur Uski Samksha Part 2
Author(s): Fulchandra Jain Shastri
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur
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जयपुर (खानिया ) तस्वचर्चा आपके द्वारा आचार्यों के इन वाक्योंके कथन को चतुराई कहकर सम्यादृष्टिके शुभोपयोगको संसारका कारण कहा गया है, किन्तु श्री कुन्दकुन्द भगवान्न तो समयसार निर्जरा अधिकार में सम्पादृष्टिके मोगको भी मिर्जराका कारण कहा है। भक्ति और शमोगयोगके सम्बन्ध में विशेषके लिये प्रश्न ३५४५१३ पर हमारे बक्तब्य देखने चाहिये ।
आपने लिखा है-'शुभोपयोगके होनेपर कर्मबंधको स्थिति और अनुभागमें वृद्धि हो जाती है और शुखोपयोगके होनेपर उसको स्थिति-अनुभागमें हानि हो जाती है।' इन वाक्योंके देखनेसे तो ऐसा प्रतीत होता है कि इन वाक्योंको लिखते समय लेखकका लक्ष्न श्री वीरसेन प्राचार्य तथा श्री नेमिचन्द्र सिसान्सचक्रवर्तीके आर्षचायकी ओर नहीं रहा, इमलिये उन पार्षवाक्योंको यहाँपर उधत किया जाता है जिससे ज्ञात होगा कि शुभोपयोग अर्थात् विशुद्ध परिणामोंसे तीन आयुके अतिरिक्त शेष समस्त कर्मबन्धको स्थितिमें वृद्धि नहीं होतो, किन्तु हानि होती है और अप्रशस्त प्रकृतियोंके अनुभाग बंधमें हानि होती है स्थिति तथा प्रशस्त प्रकृनियों के अनुभागमें वृद्धि होती है । जहाँ कषायोदय नहीं होता अर्थात् ग्यारहवें गुणस्थानसे शुद्धोपयोग होता है वहाँ तो शुद्धोपयोगसे बन्ध नहीं होता। यदि उपशमणी या क्षकश्रेणीके आदि तीन गुणस्थानोंमें भी शुद्धोपयोग माना जावे प्ता शुद्धोपयोगसे प्रशस्त प्रकृतियों के अनुभाग बन्ध में वृद्धि होती है, हानि नहीं होती । इस सम्बन्धम निम्नलिखित प्रमाण देखने की कृपा करें
सवद्विदीणमुक्कस्सओ दु उक्स्स संकिलेसेण ।
विवरीदेण जहणी आउगतियवज्जियाणं तु ॥२२॥ा-मोका अर्थ-तीन आयुको छोड़कर अन्य सब प्रकृतियोंका उत्कृष्ट स्थितिबंध उत्कृष्ट संपलेश परिणामोंसे होता है और जघन्य स्थितिबंध विपरीत परिणामोंसे अर्थात् विशुद्ध परिणामों (शुभोपयोग) से होता है। तो आयुका उत्कृष्ट स्थितिबंध विशुद्ध परिणामोसे होता है तथा जघन्य स्थितिबंध संक्लेश परिणामोंसे होता है ।
बादालं तु पसस्था विसाहिगुणमुक्कडस तिचाओ
बासीदि अष्पसस्था मिक्लुक्कडसंकिलिहस्स ॥१६॥-गो. क. अर्थ-४२ प्रशस्त प्रकृतियोंका उत्कृष्ट अनुभागबंध उत्कृष्ट विशव परिणामवाले जीन होता है और ८२ अप्रवास्त प्रकृतियोंका उत्कृष्ट अनुभागबंध मिथ्यादष्टि उत्कृष्ट संक्लेश परिणामवाले जीवोंके होता है।
धवल पु० ६ में भी लिखा है कि उत्कृष्ट विशुचिके द्वारा जघन्य स्थिति बंधती है, और विशुद्धिकी वृद्धिसे स्थितियोंकी हानि होती है ।
उक्कस्सविसोहीए जा दिदी बज्झदि सा जहणिया होदि, सवासि हिदीणं पसत्थभावाभावादो। संकिलेसवढीदो सच्चपय डिट्रिदीर्ण चड्ढी होदि, विसोहिवटीदो तासि वेव हाणी होदि।-पृ. १८०
अर्थ- उत्कृष्ट विशुचिके द्वारा जो स्थिति बंधती है, वह जघन्य होती है, क्योंकि सब स्थितियोंके प्रशस्त भावका अभाव है। संक्लेशको वृद्धिसे सर्व प्रकृतिसंबंधो स्थितिको बद्धि होती है और विशुद्धि (शुभोपयोग) की वृद्धि से उन्हीं स्थितियों को हानि होती है।
आपने जो समयसार गाथा २७२ उधत करते हए यह लिखा है-निश्चयनयके द्वारा व्यवहारमय निषिद्ध जानो।' इसका यह अभिप्राय है कि बीतराग निविकल्प समाधि में स्थित जीवोंके लिये व्यवहारनय का निषेध है, किन्तु प्राथमिक शिष्यके लिये यह प्रयोजनधान है। श्री जयसेन आचार्य इसकी टीकामें लिखते है