Book Title: Jaipur Khaniya Tattvacharcha Aur Uski Samksha Part 2
Author(s): Fulchandra Jain Shastri
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur
View full book text
________________
६७८
जयपुर ( खानिया ) तत्त्वचर्चा कारणरबादशुभपरिणामः पापम् । अविशिष्टपरिणामस्थ तु शुद्धत्वन कस्यापास्ति विशेषः । स काले संसारदुःखहेतुकमपुद्गलमयकारणस्त्रासंसारदुःखहेतुकर्मपुद्गलक्षयात्मको मोक्ष एव ॥ १८१।।
प्रथम तो परिणाम दो प्रकारका है-परद्रव्यप्रवृत्त और स्वद्न्य प्रवृत्त । इनसे परद्रव्य प्रवृत्त परिणाम परमें उपरक्त होनेसे विशिष्ट परिणाम है और स्वगम्य वत्त परिणाम परमें उपरक्त न होने से अविशिष्ट परिणाम है। उनसे विशिष्ट परिणाम के पूर्वोक्त दो भेद है...शुभ परिणाम और अशुभ परिणाम । उनमें से पुण्यरूप पुद्गलके बन्धका कारण होनसे शुभ परिणाम पुण्य है और पापरूप पुद्गलके बन्धका कारण होनेसे अशुभ परिणाम पाप है। अविशिष्ट परिणाम तो शुद्ध होनेसे एक है, उसमें भेद नहीं है। वह कालमें संसार दुःख के हेतुभूत कर्म पुदगलके क्षयका कारण होनेसे संसार दुःखफे हेतु कर्मपुद्गलके अयरूप मोक्ष ही है ।।१८१॥
आचार्य जयसेनने इसो गाथाकी टीका एक महत्त्वपूर्ण प्रश्नको उपस्थित कर उराका समाधान किया है। प्रश्न है कि
नयविवक्षामे मिथ्यादहिसे लेकर क्षोणकषायतक सभी गणस्थानों में तो अशाच निश्चयनय होता ही है अर्थात् अशुद्ध पर्याययुक्त जोव रहता ही है । इसलिए वही अशुद्ध निश्चयमें धाद्धोपयोग कैसे प्राप्त होता है ? यह प्रश्न है इसका समाधान करते हुए वे लिखते है
___ घस्वेकदेशपरीक्षा तावनगलक्षणं शुभाशुभाजुन दध्यावलम्बनमुपयोगलक्षणं चेति, सेन कारणेनाशुन्छनिश्चयमध्येऽपि शुद्धात्मावलम्बन स्वात शुन्दध्येयत्वात् शुद्धसाधकत्वाच्च शुन्खोपयोगपरिणामो लभ्यत इति नयलक्षणमुपयोगलक्षणं च यथासम्भवं सर्चन ज्ञातव्यम् ।
वस्तुके एकदेशकी परीक्षा तो नयका लक्षण है तथा शुभ, अशुभ और शुद्धद्रव्यका अवलम्बन उपयोगका लक्षण है। इस कारण अशुद्धनिश्चयस्वरूप आत्माके होनेपर भी शुद्ध आत्माका ( शुद्धनयका विषयभूत आत्माका ) अवलम्बन होनेसे; शुद्ध ( चिमचमत्कारस्वरूप. त्रिकाली जायक आत्मा) ध्येय होनेसे तथा झाद्ध 'सम्यग्दर्शनादि स्वभावपर्यायरूप ) आत्माका साधक होनेसे वहाँ भी शुद्धोपयोगरूप परिणाम प्राप्त हो जाता है। इस प्रकार भयके लक्षण और उपयोगके लक्षणको यथासम्भव सर्वत्र जानना चाहिये ।
इस प्रकार इतने विवेचनसे भी यह स्पष्ट हो जाता है कि आगममें सर्वत्र परावलम्बी प्रशस्त रागसे अनुरंजित परिणामको ही शुभोपयोग कहा है । सम्यक्त्व मुक्त मिनित अखण्ड एक पर्यायको नहीं । तथा इससे यह भी ज्ञात हो जाता है कि पुण्यभाव, व्यवहारधर्म या व्यवहारचारित्र इसी शुभोपयोगके पर्याय नाम हैं और यह परावलम्बो भाव होनेसे नियमसे बन्धका हेतु है ।
शुभोपयोगमें वीतराग देव, थोतराग गुरु और वीतरागताका प्रतिपादन करनेवाले शास्त्रोंका श्रद्धान, ज्ञान एवं पूजा, स्तुति, सत्कार सेवा परिणाम होता ही है इसमें सन्देह नहीं । परन्तु यह परावलम्बी भाव होने से इस अवस्थामें भी वह स्वावलम्बी भावके प्रति ही आदरवान बना रहता है। यदि वह उस अवस्थामें · अपने लक्ष्यको भूल जाय तो उसी समय वह नियमसे मिथ्यादृष्टि हो जाता है ।
स्वभावकी प्राप्ति तो नियमसे स्वमानके अवलम्बनस्वरूप उपयोगके होनेपर ही होती है, परके अवलम्बनरूप उपयोगसे नहीं। ऐसी धना तो सम्यग्दृष्टिके होती ही है। फिर भी सम्यग्दर्शनादिरूपसे परिणत आत्माके सविकल्पदशामें वीतराग देवादिके प्रति भक्ति-श्रद्धारूप विकल्पका और योगप्रवृत्तिका नियमसे उत्थान होता है । वह ( व्यवहारचर्म ) भेदविज्ञान के कारण प्राप्त शुद्धि क्षति नहीं कर सकता, क्योंकि उसका