Book Title: Jaipur Khaniya Tattvacharcha Aur Uski Samksha Part 2
Author(s): Fulchandra Jain Shastri
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur
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शंका १६ और इसका समाधान जो एक नयका विषय है वही विषय दूसरे नयका नहीं हो सकता । यदि ऐसा हो जाय तो दोनों नयोंमें कोई अन्तर ही नहीं रहेगा। दोनों में अन्तर नहीं रहनेसे नयोंका विभाजन व्यर्थ हो जायगा तथा सुव्यवस्था नहीं रहेगी । सर्व विप्लव हो जायेगा। जो व्यवहारनयका विषय है उसका कथन ध्यवहारनपसे ही हो सकता है, निश्चयनयसे वह कथन नहीं हो सकता । अतः आर्ष प्रमाणों को यह कहकर टाल देना कि 'विवक्षित कथन व्यवहारनयसे है, निश्चयनयसे नहीं आयमसंगत नहीं है, क्योंकि जो व्यवहारका विषय है उसका निश्वयनयसे भी कथन होनेका प्रश्न नहीं हो सकता है।
निश्चयनयके एकान्तका कदाग्रह होनेसे तथा व्यवहारनवको असत्यार्थ माननेरो जो दुष्परिणाम होंगे उनमें से कुछ सूरिजीने थो समयसार गा० १६ को टोकामें स्पष्ट किये हैं
समन्तरेण ( व्यवहारमन्तरेण ) तु शरीराज्जीवस्य परमार्थतो भेददर्शनात् प्रसस्थावराणां भस्मन इव निशंकमुपमदनेन हिंसाभावाद् भवत्येव बंधस्याभावः। तथा राहिष्टविमूढो जीयो घध्यमानो मोचनीय इति रागद्वेषमोहम्यो जीवस्य परमार्थतो भेददर्शनन मोक्षोपायपरिग्रहणाभावात भवत्येव मोक्षस्याभावः।
अर्थ-यदि व्यवहारनयका कथन न किया जाय तो निश्चयनवसे शरीरसे जीवको भिन्न बताया आने पर जैसे भस्मको मसल देनेसे हिमाका अभाव है, उसी प्रकार प्रसस्थावर जीवोंको निशंव लया मसल देनमें भी हिसाका अभाव ठहरेगा और इस कारण बन्धका ही अभाव सिद्ध होगा। तथा परमार्थ द्वारा जीव राग, द्वेष और मोहसे भिन्न बताया जानैपर, 'रागी, द्वेषी, मोही जीप कर्मोंसे बंधता है, उसे छुड़ाना है' इस प्रकार मोक्षके उपायके ग्रहणका अभाव हो जायमा और इससे मोक्ष का ही अभाव हो जायगा ।
आपके द्वितीय वक्तन्यमें निम्न वाक्योंको पढ़कर बहुत आश्चर्य हुआ। यद्यपि यह कथन प्रसंगसे बाहर है और कोई प्रमाण मो नहीं दिया गया है, तथापि मिथ्या मान्यताको दूर करने के लिये आपके निम्न वाक्योंपर आपंप्रमाणसहित विचार किया जाता है।
(अ) आपके द्वारा हमारे इन वाक्योंपर आपत्ति उठाई गई है-'इस जोबको कर्म परवश बनाये हुए है, उसीके कारण यह परतन्त्र हो रहा है।' यह वाक्य श्री विद्यानन्द स्वामौके शब्दोंका अनुवादमात्र है। श्री विद्यानन्द आचार्य निर्घन्म, सत्य महावतधारी तथा राग-द्वेषसे रहित थे, साथ-साथ वे महान् विद्वान् भी थे, जिन्होंने अष्टसहस्री आदि महान ग्रन्थों की रचना की है। अष्टसहस्त्रीके विषयमें उसीके प्रथम पृष्ठपर निम्न श्लोक है
श्रोतन्याष्ट्रसहस्री श्रुतैः किमन्यैः सहस्रसंख्यानैः।
विज्ञायेत ययैव स्वसमयपरसमयसद्भावः ।। अर्थ-वह अष्टसहस्री सुनना चाहिये, अन्य हजारों अन्योंके सुननेसे क्या ? कि जिसके सुनने से स्वसमय और परसमयका सत्य स्वरूप जाना जाता है ।
उन्हीं निम्रन्थ महानाचार्य विद्यानन्दस्वामौके मूल वाक्य पुन: उपस्थित किये जाते हैं, जिनके वाक्योंपर दिगम्बर जैनमात्रको श्रद्धा होनी चाहिये:
जीर्ष परतंत्रीकुर्वन्ति स परतंश्रीक्रियते वा यस्तानि कर्माणि, जीवेन वा मिथ्यादर्शनादिपरिणामैः कियन्ते इति कर्माणि । तानि विप्रकाराणि-व्यकर्माणि मावकर्माणि च । तत्र दृष्यकर्माणि ज्ञानावरणादीग्यही मूलप्रकृतिभेदात् । तथाटचत्वारिंशदुसरशतम, उत्तरप्रकृतिविकल्पात् । सथोत्तरोत्तरप्रकृतिभेदादनेकप्रकाराणि । तानि च पुद्गलपरिणामात्मकानि, जीवस्य पारतंयनिमिसत्वात्, निगडादिवत् । क्रोधादिभि