Book Title: Jaipur Khaniya Tattvacharcha Aur Uski Samksha Part 2
Author(s): Fulchandra Jain Shastri
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 348
________________ ७१८ जयपुर (खानिया ) तत्त्वचर्चा अात्मा के साथ शरीरका सम्बन्ध है, इसीलिये आत्मा लोकाकाशके बराबर असंख्यातप्रदेवशी होने पर भी वह शरीराकार हो रहता है। पनामुलके असंख्यातवें भाग शरीर परिमाणवाले सूक्ष्म निगोदिया जीवसे लेकर स्वयंभरमण समुद्र में रहने वाले एक हजार दोजन शरीरको अवगाहनावाले महामत्स्य में रहनेवाला आत्मा समान आमप्रदेशो होनेपर भी उन शरीरोम रुद्ध एवं बद्ध होकर परतंत्र बना हुआ है । यह बात प्रमाणोंसे भलीभांति मिद्ध है। इसो प्रकार आत्माके राग, देष और मनुष्यादि पर्वायों में जीव अपने आत्मोय सुद्ध स्वमावके विरुद्ध विकृत बना हुआ है। पोरगतमय दरकमें कोई नहीं जाना जाता है. परन्त चाना पड़ता है। इसका कारण कर्मोदयकी परतंत्रता हो है । यह परतंत्रता वास्तविक है। केवल मिथ्या ममशमे नहीं है। अब हम व्यवहार नयी बिषय-भूत व्यवहार क्रियायों पर थोडा प्रकाश डालते हैं। दिगम्बर जैनागम में व्यवहार धर्म के आधारपर हो निश्चयस्वरूप शद्वात्माको प्राप्ति अथवा मोक्षप्राप्ति बताई गई है। व्यवहार धर्मका निश्चयधर्म के साथ अधिनाभाव सम्बन्ध है। विना व्यवहार चमके निश्चय धर्म त्रिकालमें न तो किसी ने प्राप्त किया है और न कोई प्राप्त कर सकता है। इसीलिये वह मोक्षप्राप्तिमें अनिवार्य परम साधक धर्म है। यही कारण है कि तीर्थकर नकको उत्कट वैराग्य होनेपर भी मांतवा छठा गणम्यान तब तक नहीं हो सकता है जब तक वे जङ्गल में जाकर बुद्धिपूर्वक वस्त्राभूषण आदि समस्त परग्रहोंका त्यागकर नम्न दिगम्बररूप धारणकर केशलंचन नहीं कर देते है । गग्न रूप धारण करने के वाद हो उन्हें सातवाँ । छठवाँ गुणस्थान प्राप्त होता है । ४सा प्रकार छठ गुणस्त्रानसे सा मुणस्थान अप्रमत्तको छोड़कर जब वे सालिशय अप्रमत्त परिणामको अधःकरणादि तीन करणों के साथ आपक-श्रेणीका आरोहणकर अन्तमहल में केवलज्ञानमय परम विशुद्ध गुणों को प्राप्त कर लेते हैं । इस जन्म-मरणको अनादिकालीन कमजनित अजानताको हटाने के लिये मुख्य कारण नग्नता, गंच महायत, पंच समिति, पटु आवश्यक आदि व्यवहार धर्म ही है। इस प्रहार धर्मरूप महाप्रतादि क्रियाओं के विकल्पको तथा मुनिधर्मकी जीवन भरकी चर्याको सफल बनानेवाली सल्लेखना समाधिके विकल्पको हेय एवं मिथ्या बताया जाता है, जो ठीक नहीं है, अागम विरुद्ध है। उन्हीं महाब्रतादि विकल्पभावोंको शास्त्रकार पूर्वाचार्योन यात्माको विशुद्धता एवं मोक्षप्राप्तिमें मूल हेतु बताया है। इसीलिये यह फलिलार्थ मानना आवश्यक होजाता है कि मुनिलिंग द्रष्यरिंग भावलिगका साधफ अनिवार्य कारण है। द्रश्यलिंगको प्राप्ति होनेपर हो भावलिंग प्रकट होसकता है अन्यथा असम्भव है। भावलिंगकी पहिचान छदमस्थमत्तिज्ञानो-श्रुतज्ञामी करने में सर्वथा असमर्थ है। इसीलिये द्रव्यलिंग एवं अट्ठाईस मुलगणरूप बाह्य क्रियाओं के पालनको देखकर मन-वचन-कायरी मुनिराजकी श्रद्धा भक्ति करना प्रत्येक सम्यग्दृष्टिका प्रथम कर्तव्य है। अपनी वाह्य चर्मा एवं तपश्चरण में पूर्ण सावधान भावलिंगी मुनिको हम लोग द्रयलिंगी (मिष्टयादाष्ट) समझते रहें और उन्हें नमस्कार आदि नहीं करें तो यह हमारा बहुत बड़ा अपराध होगा। और मावलिंगो मनिको ट्रयलिंगी मिथ्यादृष्टि कहकर हम स्वयं मिवाष्प बन जाते है । आचार्योने पंचमकालके अन्त तक भावलिंगो मुनि बताये हैं और साथ ही उन्हें चतुर्थ कालके समान भावलिंगी मानकर उनकी श्रद्धा-भक्ति करने का विधान सम्यक्त्व प्राप्ति एवं सम्यग्दृष्टिका लक्षण बताया है। इस कथनसे यह बात भी भलीभांति सिद्ध हो जाती है कि जिस व्यवहारधर्मको अभूतार्थ कह कर अथवा उसे मिथ्या कहकर केवल निश्चयधमले निश्चयधर्म को प्राप्ति बताई जाती है वह निराधार कल्पना है। किन्न व्यवहारधर्म मोक्ष साधक अनिवार्य कारण है। यह वास्तविक परम सत्य है। इसी तत्वको भगवान कुंदकूद आचार्य देवसेनाचार्य, आचार्य बट्टकेर एवं आचार्य वीरसेन आदिने बताया है। व्यवहार असद्भुत है ऐसा मानकर ही देवपूजा, मुनिदान, तीर्थ-वन्दना, स्वाध्याप, उपवासादि,

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