Book Title: Jaipur Khaniya Tattvacharcha Aur Uski Samksha Part 2
Author(s): Fulchandra Jain Shastri
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 353
________________ शंका १६ और उसका समाधान स्पस्पर्शका विवेक छोड़कर होटलोंमें खाने लगे हैं। कुछ भाई तो व्यवहारधर्मको धर्म नहीं समझकर एवं ससे के.बल शरीरकी किया समझाकर बाजारू खान-पान एवं हीनाचारकी ओर भी झुक गये है। परन्तु बास्लब में विचार किया जाये और शास्त्रों पर श्रद्धान किया जाये तो व्यवहारधर्म श्रावक और मुनियोंका मोक्षमार्ग है । उसके बिना मुक्ति प्राप्ति असम्भव है। ३. यह बात विचारणीय है कि यदि व्यवहारधर्मको धर्म नहीं माना जाय तो धर्मप्रवर्तक तार्थ कर भगवान उसे क्यों धारण करते । ये तो सर्वोच्च अनुपम असाधारण एकमात्र धर्मनायक है। यह नियम है कि आठ वर्ष पीछे तीर्थकर अणुदती बन जाते हैं। तो क्या उनकी इस व्यवहारधर्म की प्रवृतिको धर्म नहीं माना जायेगा । उत्तर देने की कृपा करें। ४. दुसरी बात यह है कि यदि व्यवहारधर्म में होनेवाले राग-भाव (शुभराग एवं प्रशस्त राग) को रांमारवर्द्धक माना जाय तो दश गुणस्थानमें भी सूक्ष्म लोभके उदय में जो सूक्ष्म सांपरायिक रागभाव है उसे भी संसारबर्द्धक मानना पड़ेगा और वहां भी रागके सदृभाव में शुद्धोपयोग नहीं बनेगा। परन्तु क्षपश्रेणी में चले हुए दयावें गुणस्थानवर्ती शुक्लध्यानी मुनिराज उस रागके सद्भायमें भी कर्मोकी अनन्तगुणो निर्जरा करते है और अन्तमुहूर्तम नियमसे केवलज्ञान प्राप्त कर लेते हैं सा शास्त्रीय विधान है। एसी जयस्व में प्रशस्त राग संसारबद्ध क सिद्ध नहीं होता है, किन्तु ध्यानका कारण एवं केवलज्ञान प्राप्तिका अन्तिम साधन है । परन्तु आप ऐसे शुभोपयोगवाले सभ्यग्दृष्टि एवं महानता के प्रशस्त रागको भी धर्म न कहकर पुण्य कहते हुए उसे संसारषज्ञक बता रहे हैं इसका आगमप्रमाणसे उत्तर दीजिये। सारांश यह है कि शुद्धस्वरूपका प्रतिपादक निश्चयनय है और शुद्धाशुख द्रव्य मा पर्यायका प्रतिपादक व्यवहारनय है। निश्चयनय अपने स्थानपर सत्यार्थ है और व्यवहारनय अपने क्षेत्रमै सत्यार्थ है। दोनोंनय प्रमाणके ही उपभेद है, परस्पर सापेक्ष दोनों नय सत्य है, निरपेक्ष दोनों असत्य हैं। जीवको प्रत्यक्ष दृष्टिगोचर संसारी दशा भी असत्य नहीं और अन्यक्त शक्तिरूप शुद्ध-बुद्ध दशा भो सत्य है। निश्चयधर्म सापेक्ष व्यवहारधर्म आत्मद्धिका साधक है, निदयय-यवहारमयका समन्वय करनेवाला स्याद्वादसिद्धान्त जैनमिद्धान्तका मूल स्तम्भ है। श्री वीतरागाय नमः शंका १६ निश्नयनय और व्यवहारनय का स्वरूप क्या है ? व्यवहारमयका विषय असत्य है या सत्य ? असत्य है तो अभावात्मक है या मिथ्यारूप ? प्रतिशंका २ का समाधान मल मनके उत्तरस्वरूप जो लेख लिपिबद्ध किया गया था उसमें निश्चयनय और पबहारन यका स्वरूप बतलाकर व्यवहारनय के एक द्रव्यको अपेक्षा जितने भेद होते हैं उनको सप्रमाण चर्चा की गई थी।

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