Book Title: Jaipur Khaniya Tattvacharcha Aur Uski Samksha Part 2
Author(s): Fulchandra Jain Shastri
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur
View full book text
________________
शंका १६ और उसका समाधान
७२५
इसमें कमका अणुमात्र भी दोष नहीं है अपनी पताका दोष कमों पर मढ़ना और उसमें अपना अपराध नहीं मानना इसे तो वैयायिक-वैशेषिकदर्शनका ही प्रभाव मानना चाहिये आत्मा परतन्त्र है, उसको पर काल्पनिक नहीं है पर उसका मूल कारण आत्माका अज्ञान मिथ्यादर्शन परिणाम हो है, कर्म माला पति रामचंद्रजी कहते हैं
नहीं इस आशयको व्यक्त करते हुए चन्द्रप्रभु भगवान्को
1
कर्म विचारे कौन भूल मेरी अधिकाई । अग्नि सहे घनघात लोहकी संगति पाई ॥
इसी तथ्य को स्पष्ट करते हुए पण्डितवर बनारसीदास कहते हैं
करम करें फल भोगवे जीव अज्ञानी कोष । यह कथनी व्यवहारकी वस्तुस्वरूप न होय ||
इसमें सन्देह नहीं कि जीवकी जब यह परतन्त्ररूप अवस्था होती है तब उसके मोहनीय आदि कर्मोंका न भी होता है। पर इस प्रकारके संयोग को देखकर यदि वह उसका कारण परको हो मानता रहता है और अन्य अपराधो हुआ उसका मूल कारण अपने अज्ञान की ओर दृष्टिपात नहीं करता तो संसार में ऐसा कोई उपाय नहीं है ओ उसे उसकी परवा बिलग कर दे व्रत धारण करो समितिका पालन करो, मौन रहो, वचन मत बोलो, किन्तु जब तक जीवन में अज्ञानका नाम है तब तक यह सब करनेसे बात्माको अणुमात्र भी लाभ होता नहीं है। यह सारको परिपाटी बढ़ानेवाला है यार्थ लाभ नहीं माना जा सकता। शादी सम्यष्टि जीवके ही उतादि मामें सफल हैं। यह लिखना और कहना कि 'इस जीवको कर्म ही परवश बनाये हुए हैं। उसके कारण यह पता हो रहा है ऐसा ही है जैसे कोई चोर चोरी करे और कहे कि इसमें मेरा क्या अपराध ? अशुभ कर्मोदयकी परवशताश मुझे चोरी करनेके लिए बाध्य होना पड़ता है।' अतएव प्रकृत में यही मानना उचित है कि इस जीव की परतन्त्रताका मूल कारण मात्मा का अज्ञानभाव ही हैं । दर्शन मोहनीयका उदय उदीरणा नहीं, वह तो निमित्तमात्र हैं ।
आगे भ्यवहारयका विषय कह कर क्रियारूप व्यवहार धर्मसे निश्चयस्वरूप शुद्धता की प्राप्ति अथवा हुए लिखा है कि 'व्यवहारथमंका निश्चयधर्मके साथ अविनाभावसम्बन्ध है। बिना धर्म त्रिकालमे न तो किसाने प्राप्त किया है और न कोई प्राप्त कर सकता है इसलिए वह मोक्षप्राप्ति में अनिवार्य परम साधक धर्म है।' आदि ।
मोक्षप्राप्त हारसमं
प्रकृत में देखना यह है कि वह व्यवहारधमं क्या है और उसकी प्राप्ति केसे होती है । आगम में बतलाया है कि जब तक संसारी जीव मिथ्या'ष्ट रहता है तब तक उसके जितना भो व्यवहार होता है उसकी परिमणना मिथ्या व्यवहारमें होती है। ऐस मिश्या व्यवहारको लक्ष्य रहोसार लिखा है--- बद- नियमाणि घरंता सीलाणि सहा तवं व कुन्ता । परमवाहिरा जे
સ ΕΤ विदति ।। १५३ ।।
अर्थ-व्रत और नियमोंको धारण करते हुए भो तथा शील पालते हुए भी जो परमार्थसे ( परम ज्ञानस्वरूप आत्माके श्रद्धान से ) बाह्य हैं वे निर्वाणको नहीं प्राप्त होते ॥१५३॥
इसकी टीका करते हुए आचार्य अमृतचन्द्र कहते हैं
ज्ञानमेव मोक्षहेतुः तदभावे स्वयमज्ञानभूतानामज्ञानिनामतन्न तनियमशीलतपःप्रभृतिशुभकर्म