Book Title: Jaipur Khaniya Tattvacharcha Aur Uski Samksha Part 2
Author(s): Fulchandra Jain Shastri
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur
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जयपुर ( स्वानिया) तस्वचर्चा अर्थ-विद्वान् लोग निश्चयनयके विषयको छोड़कर व्यवहारके द्वारा प्रवृत्ति करते हैं, परन्तु परमार्थका आश्रय करनेवाले मनियोंके हो कर्मों का क्षय आगममें कहा गया है ।
अतएव उक्त प्रकारके भयको छोड़कर सम्यकत्वरत्न की प्राप्तिके अभिप्रायसे श्री समयसारजी आदि परमागमका मानव लेकर जो उपदेश दिया जाता है उसका विपर्यास न करके आशयको समझानेका विद्वद्वर्ग उपक्रम करेंगा ऐसा विश्वास है।
प्रतिशंका २ में वर्तमानको ध्यानमें रखकर और भी अनेक अप्रासंगिक अभिप्राय श्यत्रत किये गये हैं जो केवल भ्रमपर आधारित है, सो इस सम्बन्धमें इतना ही निवेदन करना पर्याप्त है कि एक साधर्मी भाईका गलत धारणाके आधारपर ऐसे भ्रमपूर्ण विचार बनाना यह मोक्षमार्ग तो है ही नहीं, पुण्यार्जनका भी मार्ग नहीं है।
यपि प्रतिशंकारूपसे यह लेख विशिष्ट अभिप्रायसे लिन्ना गया है तथापि उसके स्थान में जिनागमके अनुसार निश्चय-व्यवहार मोक्षमार्गको पद्धति क्या है मात्र इतना विचारकर इस लेखद्वारा समाधान करनेका प्रयत्न किया गया है।
यह सुनिश्चित सत्य है कि जो जीवन में व्यवहारको गौण कर निश्चयसे शुद्ध स्वरूप स्वभावका आश्रय लेगा उसोको भेदाभेदरूप व्यवहार-निश्चय रत्नत्रयको प्राप्ति होगी और वही अन्त में मोक्षका भागो होगा । इसीलिये स्वभावका आश्रय लेना उपाय है ऐसा यहां निवर्षरूपमें समझना चाहिये। इसो भावको व्यक्त करते हुए भगवान् कुन्दकुन्द समयप्राभूतमें कहते है
सुद्धं तु बियाणंतो सुद्ध चैवणयं लहइ जीयो ।
जाणंसो दु असुद्धं असुद्धमेवप्पयं सहह ।।१८।। अर्थ-शुद्ध आत्माका अनुभव करता हा जीव शद्ध आत्माको ही प्राप्त करता है और अशुद्ध आत्माको अनुभव करता हुआ जोव अशुद्ध आत्माको ही प्राप्त करता है ।।१८६।।
तृतीय दौर
शंका १६ निश्चय और व्यवहारनय का स्वरूप क्या है ? न्यवहारनयका विषय असत्य है क्या? असत्य है तो अभावात्मक है या मिथ्यारूप है ?
प्रतिशंका ३ इस प्रश्नमें निम्न विषय चर्चनीय है(क) निश्चयनयका स्वरूप क्या है ?