Book Title: Jaipur Khaniya Tattvacharcha Aur Uski Samksha Part 2
Author(s): Fulchandra Jain Shastri
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur
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जयपुर ( स्वानिया ) तत्त्वचर्चा जगन्नवहानमा जित नि आप्रयसे मोक्ष चाहते है वे मूढ़ है, क्योंकि बीज बिना वृक्षफल भोगना चाहते है अथवा आलसी है।
व्यवहारपराचीनो निश्चयं यश्चिकीपति । बीजाविना बिना मुबः स सस्यानि सिमक्षति ।।
-प्राचीन श्लोक सारांश-जो व्यवहारसे रहित होता हुआ निश्चयको उत्पन्न करनेकी इच्छा करता है वह मढं है, जसे जो बीज आदि क्षेत्र, खेत, जल आदि के बिना धान्य या वृक्ष आदिके फल उत्पन्न करना चाहता है वह मढ़ है।
निश्चयमयुष्यमानो यो निश्चयतस्तमेव संधयते । नाशयति करण-चरणं स बहिःकरणालसो बालः ॥५०॥
-पुरुषार्थसिञ्चधुपाय अर्थ-जो निश्चय ( व्यवहारसापेक्ष निश्चय ) को तो जानता नहीं और ( एकान्त ) निश्चयको ग्रहण करता है वह बाल है अर्थात् मूढ़ है। बाह्य चरण-करणमें आलसी होकर करण-चरणको नाश करता है।
जिस प्रकार निश्चयनयको अपेक्षा व्यवहारनयको अभूतार्थ कहा है उसी प्रकार व्यवहारनयको अपेक्षा निश्चयनयको अभूतार्थ कहा है।
दम्पट्रियषत्तव्य अवस्थु णियमेण पज्जवणयस्स । तह पज्जववत्थु अचरथुमेन दरवटियणयरस ।।१०।।
-सन्मतिसर्क अर्थ-पर्यायाथिक (व्यवहार) नयको अपेक्षा द्रष्याथिक (निश्चय) नयके द्वारा कहा जानेवाला विषय अवस्तु है, उसी प्रकार द्रव्याथिक (निश्चय) नयको अपेक्षा पर्यायाथिक (व्यवहार) नयके द्वारा कहा जानेवाला विषय अवस्तु है।
कुछका ऐसा विश्वास है कि मात्र निश्चयनय हो आत्मानुभूतिका कारण है, उनका ऐसा बिधार उचित नहीं है, क्योंकि व्यवहारनिरपेक्ष निश्चयनय एकान्त मिथ्याश्य है । अयन्दा निश्चयनयका पक्ष भी तो एक विकल्प है और विकल्प अवस्थामै स्वानुभति नहीं हो सकती । इसी बातको श्री पं० फूलजन्द्रजीन स्वयं इन शब्दों में स्वीकार किया है
यद्यपि निश्चयनय इन्य है, गुण है इत्यादि विकल्पोका निषेध करता है. इसलिये उसे परमार्थ सद बतलाया है, किन्तु स्वानुभूतिमें 'न तथा' यह विकल्प भी नहीं होता । असा निश्चयनय आस्मानुभूतिका कारण नहीं है ऐसा समझना चाहिये ।
----पंचाध्यायी पृ० १२७ विशेषार्थ (वर्णी प्रन्थमालासे प्रकाशित) इससे यह सिद्ध हो जाता है कि भार निश्चयनयके आश्रयसे भी मोक्षप्राप्ति नहीं हो सकसी ।
निश्चयनय और व्यवहारनयका विषय परस्पर प्रतिपक्ष सहित है, अतः इनका लक्षण भी एक दुसरेके बिरुद्ध होना चाहिए। इसीको दृष्टिमें रखते हुए इनके लक्षण आर्षग्नन्थों में इसी प्रकार कहे गये है। श्री देवसेन आचार्य लिखते है