Book Title: Jaipur Khaniya Tattvacharcha Aur Uski Samksha Part 2
Author(s): Fulchandra Jain Shastri
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 365
________________ शंका १६ और उसका समाधान ७३५ अनेकरूप समय जाता अर्थात् सम्यग्दृष्टि नयोंके विषयोंको जानते तो है, किन्तु किसी नयपक्षको ग्रहण नहीं करते । श्री कुन्दकुन्द भगवान्ने समयसार में कहा भी है I दोष्ण वि याण भणियं जाणइ णवरि तु समयपछि । यदि किचि वि णयपक्लपरिहीणी ॥ १४३ ॥ अर्थ-जो पुरुष मात्मासे प्रतिबद्ध है अर्थात् आत्माको जानता है वह दोनों ही नयोंके कथनको केवल जानता है परन्तु नयपक्षको कुछ भी ग्रहण नहीं करता, क्योंकि वह नयोंके पक्षसे रहित है । अर्थात् किसी एक नमका पक्ष ( आग्रह ) नहीं करना चाहिये । इससे इतना तो स्पष्ट हो जाता है कि यदि कोई निश्चयनय एकान्तका पक्ष ग्रहण करके व्यवहार नयको सर्व झूठ कहता है तो वह आगमविरुद्ध है। श्री वीरसेन स्वामी जयधवल पु० १५०८ में निम्न प्रकार कहते हैं वारणओ चपभो, तप्तो (ववहाराणुसारि) सिस्साण पटतिसाद | जो बहुजीषाणुमहकारी बहारणओ सो वेव समस्सिदन्यो ति भणावहारिय गोदमथेरेण मंगलं तत्थ कयं । अर्थ - यदि कहा जाय कि व्यवहारनय असत्य है सो भी ठीक नहीं है, क्योंकि उससे व्यवहारका अनुसरण करनेवाले शिष्योंकी प्रवृत्ति देखो जाती है। अतः जो व्यवहार नय बहुत जीवोंका अनुग्रह करनेवाला है उसीका आश्रय करना बाहिये ऐसा मनमे निश्चय करके श्री गौतम स्थविरने चौबीस अनुयोगद्वारोंके आदिमें मंगल किया है । व्यवहार से वस्तुस्वरूपका ज्ञान होता है, अतएव वह व्यवहारनय पूज्य है। इसी बातको श्री पद्मनन्दि आचार्य कहते हैं मुख्योपचारविवृर्ति व्यवहारोपायतो यतः सन्तः । ज्ञात्वा श्रयन्ति शुद्धं तस्यमिति व्यवहृतिः पूज्या ||११|| पथन न्दिपंचविंशवि अर्थ - चूँकि सज्जन मनुष्य व्यवहारनसके आलयरी ही मुख्य ओर उपचारभूत कथनको जानकर शुद्ध स्वरूपका आश्रय लेते हैं, अतएव वह व्यवहार पूज्य है । Saranrarer विषय पर्याय है। पर्यायोंका समूह द्ररूप हैं अथवा गुण और पर्यायवाला द्रव्य है 'गुणपर्ययवत् द्रव्यम् ' ( स० सू० अ० ५ सूत्र ३८ ) इससे स्पष्ट है कि जिस समय तक पर्यायका भी यथार्थ श्रद्धान नहीं होगा उस समय तक द्रव्यका भी यथार्थ श्रद्धान नहीं हो सकता है। द्रव्यके आगम अनुकूल श्रद्धान करनेसे सम्यग्दर्शन उत्पन्न होता है और सम्यग्दर्शन विनय होती है । जे अत्थपज्जया खलु ते वह रोचेदि परो दिदा जिणवरेहिं सुदणाणे । इंसणविणओ हवदि एसी ॥१८२॥ - मूलाचार अ० ५ अर्थ - जो अर्थपर्याय जिनवरने आगम में कहीं हैं उनको उसी प्रकारसे रुचि करनेवाले पुरुषके दर्शन-विनय होती है । अर्थात् ( व्यवहारनयक विषयभूत) उन पर्यायों के यथार्थ स्वरूपपर भव्य जोन जिस परिणामसे बडा करता है उस परिणामको दर्शनविनय ( सम्यग्दर्शन ) कहते हैं ।

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