Book Title: Jaipur Khaniya Tattvacharcha Aur Uski Samksha Part 2
Author(s): Fulchandra Jain Shastri
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur
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जयपुर (खानिया ) तत्वचर्चा
का त्याग कर सत्यव्रत, अचौर्गाणुव्रत और ब्रह्म वर्याणुव्रत पूर्वक सात शीलोंको धारण करता है। ये बारह व्रत हैं। इनके साथ अविरल सम्यग्दृष्टि देव गुरु शास्त्रकी पूजा अर्चा, बन्दना, नमस्कृति आदिरूप जितना श्रावकका कर्तव्य है आत्मोन्मुख परिणसिके साथ वह सब व्यवहार धर्म देशविरत गृहस्थ के होता है । आत्मजागृति के साथ इसके शरीर, भोग और संहारके प्रति जो सहज उदासीन वृत्ति उदित होती है उसके परि णामस्वरूप यह विचार करता है कि
कब से मेरे वा दिनकी सुधरी । तन विन वसन अशन थिन वनमें निवसों नासादृष्टि घरी । कब०,
यह तो आगमसे ही स्पष्ट है कि श्रावकधर्म अपवादमार्ग है । उत्सर्गमार्ग तो मुनिधर्म ही है, इसलिए गृहस्थाश्रम में रहते हुए भी आत्मजागृति के कारण उसमें उसकी सहज उदासीनता बनी रहती है और अन्त रंगमें कषायको मन्दताके साथ जैसे जैसे आत्मविशुद्धिकी वृद्धि होती जाती है वैसे वैसे उसका चित्त परम वीतराग मुद्राको चारणकर साक्षात् मोक्षमार्गपर आरूढ़ होनेके लिए उद्यत होता है ।
रंगों
मुनिधर्म लोकोत्तर साधना है। जिसके चिप्स में भोगोपभोग के प्रति पूर्णरूपसे सहज उदासीनता उत्पन्न हो गई है, को पूर्ण आत्मजागृति के लिए बद्धपरिकर है, जिसने पूर्ण अहिंसा, सत्य, अचौर्य और ब्रह्मचर्यको पराकाष्ठा प्राप्त करनेका अन्तरंग में निर्णय कर लिया है ऐसा आत्मार्थी गृहस्थ जब स्वभावभाव के माश्रयसे अपने में पूर्ण वीतरागता प्राप्त करनेके लिए उद्यत होता है तब बाह्यमें वह बन्धुवर्ग, गुम्जन और सब द्दष्ट परिकरके समक्ष अपनी अन्तरंग भावना व्यक्त कर और उनसे विदा लेता हुआ कहता है—
बन्धुवर्ग में प्रवर्तमान आत्माओ ! इस पुरुषका आत्मा किंचिन् मात्र भी तुम्हारा नहीं है ऐसा तुम निश्चयसे जानो । इसलिए मैं आप सबसे विदा लेता हूँ जिसे ज्ञानज्योति प्रगट हुईं हैं ऐसा यह आत्मा आज आत्मारूपी अपने अनादि बन्धुके पास जा रहा है।
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अहो ! इस पुरुषके शरीर के जनकके आत्म! अहो ! इस पुरुषके शरीरकी जननी के आत्मा ! इस पुरुषका आत्मा आप दोनों द्वारा उत्पन्न नहीं है ऐसा आप दोनों निश्चयसे जानो । इसलिए आप दोनों इस आत्माको छोड़ो अर्थात् इस आत्मा में रहनेवाले रामका त्याग करो। जिसे ज्ञानज्योति प्रगट हुई है ऐसा यह आश्मा आज आत्मारूपी अपने अनादिजनक के पास जा रहा है।
तू इस पुरुषके आध्माको रमण नहीं जिसे ज्ञानज्योति प्रगट हुईं है ऐसा
अहो ! इस पुरुष के शरीरकी रमणी (स्त्री) के आत्मा करती ऐसा तू निश्चय से जान। इसलिये तू इस आत्माको छोड़ यह आत्मा आज अपनी स्वानुभूतिरूपी अनादि- रमणीके पास जा रहा I
अहो इस पुरुष के शरीरके पुनका आत्मा ! तू इस पुरुषके आत्माका जन्य नहीं है ऐसा तू निश्चय से जान । इसलिये तू इस आत्माको छोड़ । जिसे ज्ञानज्योति प्रगट हुई है ऐसा यह आत्मा आज आत्मारूपी अपने अनादि जन्य के पास जा रहा है। इस प्रकार बढ़ोंसे स्त्रीसे और पुत्र से अपनेको छुड़ाता है । प्रवचनसार २०२ टीका पृ० २४९
इसके बाद ज्ञानाचार आदिको सम्यक् प्रकारसे आराधना करता हुआ वह गुणाढ्य, क्रोधादि दोषोंसे रहित, और बयोवृद्ध आदि उत्तम गुणोंसे सम्पन्न गणी ( आचार्य ) को प्राप्त कर 'मुझे स्वीकार करो'