Book Title: Jaipur Khaniya Tattvacharcha Aur Uski Samksha Part 2
Author(s): Fulchandra Jain Shastri
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 357
________________ ७२७ शंका १६ और उसका समाधान अभीतक यह संसारी जीव अपने अज्ञानवश अन्य भवरोगसे पीडित संसारी सरागी देवताओंकी श्रद्धा करता आ रहा था। प्राप्त सांसारिक साधनोंको पुण्यका फल मानकर उन्हीं में तन्मय हो रहा था। किन्तु उसे सम्यग्दर्शनको प्राप्ति होनेपर उसको पंचेन्द्रिय भोगां सहज उदासीन वृत्ति हो जाती है। ऐसा सम्यग्दृष्टि शुद्ध प्रात्मके प्रतिनिपिल कारपसरूप देव, गुरु और शास्त्रको उपासनाको ही अपना आवश्यक कर्तव्य मानता है। इसी आयायको ध्यानमें रखकर देशव्रतोद्योतन पृ० १६ में कहा है आत्मा ज्ञानानन्दस्वभावी है ऐसी दिन्यशमिकी जिसे प्रतीत हुई हो उसे जन तक पूर्ण दशा प्राप्त न हो तब तक जिनेन्द्रदेवकी पूजन करनी चाहिए। सम्यक्त्वी श्रावकको उनकी पूजा करनेके भाव आते हैं । मुनि भी भावपूजा करते है। श्रावक संघक बनकर पूक्षा करते हैं। जिसके अन्तरंगमें ज्ञानस्वभावका भान है वह कहता है-हे नाथ ! तेरे विरहमें अनन्त काल बीत गया। हे प्रभु ! अब कृपा करो और मेरे जन्म-मरणका अन्त कर दो। जन्म-मरणका अम्त अपने आत्मासे ही होता है, किन्तु अपूर्ण अवस्थामें भगवानकी पूजाका भाव होता है। स्वयंमस्तोत्रमें समन्तभद्र आचार्य अनेक प्रकारसे स्तुति करते हैं । जिसे आत्माका भान है उसे पूर्णदशा प्राप्त भगवान्की स्तुति करनेके भाव आते हैं-हे नाय! आपको पूर्ण आनन्द मिल गया। आपमें अल्पज्ञता और विकार नहीं रहे। अब करूणा कर, एसे नन्न वचन निकले विना नहीं रहते। आगे पृ० १७ में लिखा है-- जो मनुष्य जिनेन्द्र भगवान की भकि नहीं देखता तथा भकिपूर्वक उनकी पूजा, स्तुप्ति नहीं करता उस मनुष्यका जीवन निष्फल है। तथा उसके गृहस्थाश्चमको धिक्कार है। निग्रन्थ बनवामी मुनि भी कहते है कि उन्हें धिक्कार है। आगे गाथा १६.१ में कहा है कि भव्य जीवोंको प्रातःकाल उठकर श्री जिनेन्द्रदेव तथा गुरुके दर्शन करना चाहिये तथा भक्तिपूर्वक उनकी धन्दना स्तुति करनी चाहिये । तथा धर्मशास्त्र सुनना चाहिये । तत्पश्चात गृहकार्य करने चाहिये । गणधरादि महान् पुरुषोंने धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष इन चार पुरुषार्थीम सर्व प्रथम धमका निरूपण किया तथा उसको मुख्य माना है। यह सम्यग्दृष्टिकी सच्चे देव, गरु, शास्त्रको प्रयाय भक्ति है। इसके साय सात व्यसनोंके सेवनमें उसकी त्याम भावना हो जाती है। वह शास्त्रों में प्रतिपादित आठ अंगोंका उक्त प्रकारसे पालन करते हा सम्यग्दर्शनके पच्चीस दोषोंका त्याग कर देता है । इस प्रकार निश्चय सम्यग्दर्शनके माथ व्यवहार सम्यग्दर्शनका यथाविधि पालन करते हुए सहज आत्मचकी दतावा आत्मविद्धिकी उत्तरोत्तर वृद्धि होनेपर जैस हो अन्तरंग में अंशहपसे उसके बौसम परिगतिके जागृत होनके साथ अप्रत्याख्यानावरण कथामका अभाव हता है तब वह बाह्यमें अपनी शक्ति के अनुसार धानकके बारह प्रतोंको मनःपूर्वक पालन करने लगता है। इसके लिये यह द्रव्य, क्षेत्र, काल और भावोंका सम्यक् विचारकर अपने मन्निकट जो सम्बन गुरु होते हैं उनके चरणोम उपस्थित हो अग्नी अन्तरंग विशुद्धिका प्रकाशन कार बुद्धिपूर्वक श्रावके अहिंसाणुव्रत आदि धारह व्रतोंको धारण करता है। परमानन्दस्वरूप निस्य एक शान-दर्शनस्वरूप शायकभावकै सिना अन्य सब पर है ऐसा भेदविज्ञान तो उसके सम्यग्दर्शनके काल में ही उत्पन्न हो गया था। अब उसके रागभावमें भी और न्यूनता आई है. अतएव वह संयोगको प्राप्त हए भोगोपभोगके साधनों का परिमाण तो करता ही है। साथ ही संकल्पपूर्वक त्रसहिंसा रान

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