Book Title: Jaipur Khaniya Tattvacharcha Aur Uski Samksha Part 2
Author(s): Fulchandra Jain Shastri
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur
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शंका १६ और उसका समाधान
७२९ ऐसा निवेदन कर प्रणत होता हुआ गणीके द्वारा अनुगृहीत होता है। तदनन्तर में दूसरोंका नहीं हूँ, दूसरे मेरे नहीं है, इस लोक में मेरा कुछ भी नहीं है ऐसा निश्चयवान् और जितेन्द्रिय होता हुआ यथा जात रूपघर होकर केशलुंच करता है। उस समय उसकी वृत्ति हिसादिसे रहित २८ मूलगुणयुक्त और शरीरके संस्कारसे रहित होती है। इस प्रकार यथाजात मुनिलिंगको स्वीकारकर जब वह नब दीक्षित स्वभावसन्मुख हो मात्मरमणताको प्राप्त होता है तब वह श्रावकधर्मके उत्कृष्ट विशुद्धिरूप परिणामोंका आलम्बन छोड़ सर्वप्रथम अप्रमत्त भावको प्राप्त होता है ।।
धन्य है यह आत्मस्वरूएम स्थित परम बीतगग जिन मुद्रा ! जिन्होंने ऐसो जगत्पूज्य वीतरागस्वरूप साक्षात् जिनमृद्राको प्राप्तकर पूर्ण जिनत्व प्राड लिया। काई की : विशुशिन्होंने पूर्ण पात्मजागृतिका हेतुभूत परम पवित्र वीतरागस्वरूप जिनमुद्राका भी आलम्बन लिया वे भी धन्य है।
इसके बाद ऐसा ज्ञानी वीतरागो साघु अति अल्प कालमें (अन्समुहूर्तमें) प्रमत्तसंयत होता है । इसका अन्तमहत काल है। किन्तु अप्रमत्तसंयतका काल इससे आधा है। प्रमत्तसंयत अवस्थामै इसके स्वाध्याय, धमों देश, आहारग्रहण, विहार आदि क्रियाएँ होती है। ऐसा नियम है कि प्रमत्तसंयत गुणस्थानसे लेकर अनिवृत्तिकरण गुणस्थान तक सामायिक संयम और छेदोपस्थापना संयम ये दो संयम होते है। वीतराग साधुके सदा काल अरि-मित्र, महल-स्मशान, कञ्चन-कौन तथा निन्दा करनेवाला-स्तुति करनेवाला इनमें सर्वकाल समभाव रहता है। पर्यायरूपसे काव और कञ्चनको बह अलग अलग जानता अवश्य है, परन्तु स्वभावदृष्टिको प्रधानला होनेसे बह दोनोंको पुद्गल समझकर एकको श्रेष्ठ और दूसरेको सुच्छभावसे नहीं देखता । जगतके सब पदार्थोंको देखने को उसकी यही दृष्टि रहती है।
शरीर और पर्यायसम्बन्धो मूर्छा तो उसकी छूट हो गई है, इसलिये उसका शरीर संस्कारको ओर माणुमात्र भी ध्यान नहीं जाता। संचलन कषायके सद्भाव में आहार, पीछी, कमण्डलु और स्वाध्यायोपयोगी १-२ शास्त्र मात्रके ग्रहणके भावका विरोध नहीं है, इसलिये एषणा और प्रतिष्ठापन समिति के अनुसार ही वह इनमें प्रवृत्ति करता है।
श्रावकोंको ययाविधि श्रावकधर्मका उपदेश देते हुए भी थावक्रोचित किसी भी क्रियाके करनेकी न तो वह प्रेरणा करता है और न उसमें किसी प्रकारकी रुचि दिखलाता है।
मोक्षमार्गमें पूज्यता चारित्रके आधार पर है। मुख्यतया पञ्च परमेष्ठी ही पूज्य है। चारित्रधारोकी विनय पदके अनुसार यथायोग्य उचित है, भले ही वह 'देशाती तिर्यञ्च ही हो।' पर चारित्रसे रहित देव मी वन्दनाय नहीं है, अतएव साधु देशभेद, समाजभेद और पन्थभेदसे सम्बन्ध रखनेवाली रूढिजन्य क्रियाओंको अपेक्षा किये बिना वीतरागभावकी अभिवृद्धिरूप 'स्वयं प्रवृत्ति करता है और तदनुरूप ही उपदेश करता है।
प्ह निश्चय मोक्षमार्गपूर्वक व्यवहार मोक्षमार्ग है। चरणानुयोगके अन्यों में इसोका प्रतिपादन किया गया है । पण्डितप्रवर दौलतरामजोने छहतालाको ६वीं ढालमे
मुख्योपचार विभेद यों बडभागि रत्नत्रय धरें । इस वचन द्वारा जिस दो प्रकारके रत्नत्रयका सूचन किया है उसमें से मुख्य रत्नत्रय ही निश्चयधर्म है, क्योंकि वह स्वभावके आश्रयसे उत्पन्न हुई आत्माको स्वभावपर्याय है खथा उपचाररत्नत्रय ही व्यवहारधर्म है, क्योंकि निश्चयधर्म के साथ गुणस्थान परिपाटीके
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