Book Title: Jaipur Khaniya Tattvacharcha Aur Uski Samksha Part 2
Author(s): Fulchandra Jain Shastri
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur
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जयपुर ( स्वानिया ) तत्त्वचर्चा उपयोगस्वरूप आत्माका लिएके दिपपाको महका ये अपनारको छुड़ानेका प्रयत्न किया है।' आदि।
आपको उपर्युक्त पंक्तियाँ भ्रम पैदा करतों है। कारण जो शरीर और उसकी क्रियाको प्रात्मा मामता है यह तो मिध्पादृष्टि है। उस विचारवाले मिथ्याष्टिका सम्बन्ध सम्यग्दृष्टिको आत्माके साथ नहीं जोड़ना चाहिये । सम्यग्दष्टि जोद शरीरको आत्मा नहीं समझता है, किन्तु वह तो निश्चयस्वरूपको समझकर उसके साधक व्यवहारधर्मको पालता है। उस व्यवहारधर्मको छोड़ने का प्रयत्न किसी शास्त्रमें नहीं बताया गया है, किन्तु उसे ग्रहण करनेकाही विधान है। हाँ सम्पादष्टिका व्यवहारधर्म निश्चय प्राप्तिको कराकर स्वयं छूट जाता है।
इसका प्रमाण यही है कि आत्मा छटे गुणस्थानकी क्रियाओं में महाव्रतादि व्यवहारधर्मके द्वारा जब सातवें अप्रमत्त गुणस्थानमें पहुँच जाता है तब वह क्रियात्मक व्यवहारधर्म स्वयं छट जाता है।
दिगम्बर जैनधर्म अनेकान्तस्वहा है। उसके अनुसार निश्चय और उपवहार दोनों मय और उनके विषपभूत पदार्थ प्रमाणभूत सिद्ध हो जाते है। इसका खुलासा यह है कि प्रमाण वस्तुके सर्वाशको ग्रहण करता है, वस्तु द्रव्य-गर्यायात्मक है। इस वस्तु स्वरूपको ध्यानमें लेनेसे यदि केवल निश्चयनयको ही उपादेय माना जावे तो वह निरपेक्ष होनेसे मिथ्या नय ठहरेगा | 'निरपेक्षाः नया मिथ्या' ऐसा शास्त्रवाक्य है। यदि निश्चयनयको छोड़कर केवल व्यवहारको हो ठोक माना जाय तो भो वह मिटपा ठहरेगा। क्योंकि बस्तस्वरूप द्रव्य-पर्याय उभयरूप है। इसलिये जैसे निश्चय प्रमाणभूत उपादेय है उसी प्रकार ब्यवहारनय भी प्रमाणभूत उपादेय है । प्रमाणशान दोनों साक्षेप नयों को एक साथ ग्रहण करता है । इसलिये दोनों नयोंके विषयभूत निश्चय और व्यवहारधर्म भो प्रमाणभूत एवं समीचीन है। क्रियात्मक एवं भावात्मक दोनों चर्मोका सामंजस्य और समीचीनता अनेकान्त प्रमाण सहज सिद्ध हो जाती है। परन्तु ये निराधार स्वतंत्र मान्यताएँ अनेकान्त स्वरूपको छोड़कर मिथ्या एकान्तरूप बन गई है।
इस प्रकारको एकान्त मान्यताओंसे व्यवहारधर्मको हेव तथा निश्चयवर्मको ही उपादेय माना जाता है । इस मान्यताका कटक फल यह दोखने लगा है कि जिनभक्ति, मुनिभक्ति, मुनिदान, तीर्थवन्दना आदि धाकधर्म विधायक एवं मोक्षफल प्रतिपादक मुनिधर्म विधायक शास्त्रोंमें परिवर्तन किया जा रहा है । तथा उन्हें कुशास्त्र कहनेका दुःसाहस भी किया जा रहा है। इन बातोंसे दिगम्बर जैनधर्ममें पूर्ण विकृति आये बिना नहीं रह सकती है।
इमलिये यथार्थ वस्तुस्वरूप प्रतिपादक अनेकान्तका आश्रय लेना आवश्यक है। उसोरो ब्यवहारषर्म एवं निश्चयधर्म में हेत-हतमभाव, कार्यकारणभाव एवं साध्य-साधकभावकी सिद्धि हो जाती है। इस समोचीन मान्यतासे हो जात्मा स्वगर कल्याण एवं मोक्षमार्गमें प्रवृत्त हो जाता है।
उपर्युक्त समस्त विवंचनकी पुष्टि में यहाँ पर संक्षेपरूपसे कतिपय प्रमाणीका उद्धरण हम प्रस्तुत करते है। वे प्रमाण इस प्रकार है
देवागम स्तोत्रको 'दोषावरणयोहानि:' आदि, इस कारिकाके माध्यमे आचार्य विद्यामन्दि स्वामो लिखते हैं कि
___ वचनसामादज्ञानादिदोषः स्वपरपरिणामहेतुः, न हि दोप राव आवरणमिति प्रतिपादने कारिकाया दोषावरणयोरिति द्विवचनं समर्थम् । ततः तत्सामादावरणात् पौद्गलिकज्ञानावरणादिकमणी भिन्न