Book Title: Jaipur Khaniya Tattvacharcha Aur Uski Samksha Part 2
Author(s): Fulchandra Jain Shastri
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur
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संका १६ और उसका समाधान
परकी सहायताके बिना मेरा निर्वाह नहीं हो सकता ऐसी मिथ्या मान्यतावश अपनेको परतन्त्र बनाये हुए चला आ रहा है। ये आपकी पंक्तियाँ है। इन को पढ़नसे यह अयं मर्वविदित स्पष्ट हो जाता है कि आप वात्माकी परतन्त्रताको केवल कल्पनात्मक समझते है। और परपदार्थोके संयोगको आप एकत्व बुद्धिरूप मिथ्या मान्यता बता रहे हैं। आपकी समझसे कर्मोका आत्माके साथ न तो वास्तव में सम्बन्ध है और न आत्माके राग-द्वेष बिकारभाव एवं नारकादि आत्माकी बंजन पर्याय उनमें होती है। केवल एकत्व द्ध रूप मिथ्या मान्यता है । इसी समलके अनुसार आपने लिखा है कि 'म्वमहाय होनेपर भी परकी सहायताके बिना मेरा निर्वाह नहीं हो सकता है, ऐसी मिथ्या मान्यता वश परतन्त्र मान रहा है।'
इसी समहाके अनुसार 'झ्यवहारनयका विषय असत्य है क्या ?' इस हमारे प्रश्नको छुआ तक नहीं है, उसका कोई उत्तर नहीं दिया है। इसका भी कारण यह है कि आप अपनी निजी समझसे आत्माके
मारी भागमा म काका पाद आत्मा पर नहीं मानते है । किन्तु आत्माकी अनादि बशामताको स्वयं आत्मोय योग्यतासे मान रहे हैं।
परन्तु ऐसी मान्यता समयसार, ममाचार, भावसंग्रह. रयणसार, धवल सिद्धांत, तस्वार्थयातिक, गोमटसार आदि शास्त्रोंसे विपरीत है। इसका सामाण साष्टीकरण करते हरा हम यह बता देना आवश्यक समझते हैं कि जीवकी अनादि अज्ञानता स्वयं आत्माके केवल निजी भावोंसे नहीं होती है। किन्तु वह अज्ञानता को जनित आत्माकी परतन्त्र कर्माधोन भाव व्यंजनपर्याय है। यदि अज्ञानताको आत्माकी स्वतन्त्र पर्याय मान लिया जाय तो यह अज्ञानता संसारी जोयों में क्यों पाई जातो है। परम-शद्ध परमात्मा सिद्ध-भगवान में क्यों नहीं हो सकती है। इसका क्या विशेष हेतू है? इसका उत्तर शास्थाघारसे दीजिये 1 आत्माका स्वभाव निश्चय नयसे केवलज्ञानरूप है, यथाख्यात चारित्ररूप विशुद्ध परिणामस्वरूप है, विशुद्ध सम्यग्दर्शनरूप है । तथा उस स्वभाव आत्मामें अज्ञानरूप विभावभाव किस कारणसे बागया इस बातका उत्तर देना चाहिये ।
दूसरी बाल यह है कि आत्मामें परतंत्रता आप वास्तव में नहीं बताते है, किन्तु उसे मिध्या मान्यतावश केवल कल्पनात्मक बता रहे है । जैसी कि आपकी कार पक्तियाँ है। यह बात भी शास्त्रानुसार विपरीत है। कारण समस्त पूर्वाचाोंने स्वरचित समस्त शास्त्रोंसे मात्माको वास्तव में परतंत्र लिखा है। परतंत्रता शरीर एवं ज्ञानावरण, दर्शनाबरण, मोहनीय आदि व्यकर्मों के उदयसे ही हुई है, जो पर्यायष्टिसे वास्तविक है। यदि परतंत्रता आत्माको निर्हेतुक एवं कोरी कल्पनात्मक हो हो तो यह परतंत्रता एवं अज्ञानता प्रात्मामें सदैव रहनी चाहिये। जो वस्तु निर्हेतूक होती है बह नित्य रहती है। जैसे धर्म अधर्म आकाशाद्व्य, ये नितुक होनेसे सदैव स्वकीय स्वभावमय रहते है। जीव पदगलामें वैभाविकी शक्ति उपादानरूप होनेसे और बाह्य में कर्मोदय जनित उपाधि होनेस दोनों द्रश्य विभाव भावपर्यायको धारण करते हैं, इसीलिये वह जीब पदगलोंकी विकृति सहेतुक है। और उसासे जीव परतंत्र बना हुआ है। आत्मासे जम बाह्य कारण कर्मोदय जलिल निमितो बंधनेवाले द्रव्यकम हट जाते है तो आत्मा सन परजन्य विकारभावोंसे हट जाता है, परम शुद्ध बन जाता है। उस समय अपत्माकी भाविक शक्ति स्वभावरूप परिणत हो जाती है। बिना बाह्य निमित्त कर्मोदयके वह शक्ति विभाव भावरूप गर्याय कभी नहीं बन सकती है। बिना निमित्त कारणके केवल उपादान कुछ भी करने में सर्थथा असमर्थ है।
जो जात सहेतुक नहीं होतो, केबल कल्पनामात्र होती है, उससे वस्तुको वास्तविकता सिद्ध नहीं होती। यदि कोई जड़को चेतन और चेतनको जड़ समझ बैठे तो वह उसको समसका दोष है। उसकी समक्ष में बढ़ चेतन नहीं हो जायेगा, और चेतन जड़ नहीं बन जायेगा।