Book Title: Jaipur Khaniya Tattvacharcha Aur Uski Samksha Part 2
Author(s): Fulchandra Jain Shastri
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur
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शांका १६ ओर रस-ज्ञा सामान
७१५ विषय है और शेष व्यवहार है। श्री पंथाध्यायीजी में व्यवहारके चारों भेदोंका निरूपण इसी आशयसे किया गया है जिसका निर्देश भी ममयसारजीको गाथा ६ और ७ में स्पष्ट रूपसे किया गया है।
यह श्री समयसारजीका मुख्यरूपसे विवेचनीय विषम है जिसका निश्चयनय और व्यवहारनयको लक्ष्यमें रखकर यहाँ विचार किया गया है। किन्तु आत्मासे सर्वथा भिन्न ज्ञानावरणादि वर्ग और नोकर्म (शरीर, मन, वाणो और बाह्य विषय ) में भी एकत्यबुद्धि बनी हुई है। तथा वह पराश्रित बुद्धिवाला होनेसे कार्य-कारण परम्मा भो कार्य के प्रति आत्माको सहज योग्यताको उसका मुख्य कारण न मानकर कार्यको उत्पत्ति परमे मानता आ रहा है। इस प्रकार उसकी विषय और कारणरूपसे जो परके साय एकत्व बुद्धि हो रही है उसे दूर करने के अभिप्रायमे तथा इतर जनोंको प्रकृल में उपयोगी व्यवहारनय और निश्चयनयका विशेष ज्ञान कराने के अभिप्रायसे भी श्री समयसारजी में यहाँ वहाँ सर्वत्र दूसरे प्रकारसे मी निश्चयचय और व्यवहारमयका निर्देश किया है। उदाहरणार्थ श्री समयसारजी गाथा २७ में देह और अन्य की क्रियाके साथ, उसे आत्मा मानकर, जिसको एकत्व बद्धि बनी हुई है या जिसने नयज्ञानका विशेष परिचय नहीं प्राप्त किया है उसकी उस दृष्टिको दुर करने के अभिप्रायसे इसे भी उयवहारनायका विषय बतलाकर उपयागस्वरूप आत्माका निश्चयनयके विषयरूपसे ग्रहणकर माप ऐसे व्यवहारको छहानेका प्रयत्न किया गया है। इसीप्रकार कर्ता-कर्म अधिकाग्म या अन्यत्र जहाँ भो निश्चयनय और व्यवहारनयका प्रयोग हआ है वहाँ बह दो द्रव्यों और उनकी पर्यायोंमें ही रहो अभंद बद्धको दूर करने के अभिप्रायसे हो किया गया है इसलिए जहाँ पूर्जेक्त दृष्टिसे निश्चयनय व्यवहारनयका निरूपण किया गया हो उसे वहाँ उम् दृष्टिसे और जहाँ अन्य प्रकारसे निश्चयनय व्यवहारनयका निरूपण हो वहाँ उसे उस प्रकारसे दधिपथमें लेकर उसका निणय कर लेना चाहिये 1 लसणादि दाष्टले इनका विवेचन अन्यत्र किया हो है, इसलिए यहाँसे जान लेना चाहिये ।
पहा निश्चयनयके सम्बन्धमें इतना लिखना और आवश्यक है कि निश्चयनय दो प्रकारका है-सदिका निश्चयनय और निविकल्प निश्चयनय । नयचक्र में कहा भी है
सविपष्प णिबियप्यं पमाणरूवं जिागेहि णिघिट्ट ।
तह घिह या वि भणिया सवियप्पा णिवियप्पा च ॥ जिनदेवने विकल्प और निर्विकल्पके भेदसे प्रमाण दीपाको कहा है। तथा उसी प्रकार मायकला और निविकल्पक भेदसे नए भो दो प्रकारके कहे गये है।
अब विचार यह करना है कि यहां निर्विकल्पनयसे क्या प्रयोजन है और उसका श्री समयसारजीमें कहां पर निकपण किया है और वह कसे बनता है ?
यह तो अनुमवियोंके अनुभवको वात है कि जब तक स्त्र और परको निमित्तकर किसी प्रकारका विकला होता रहता है तब तक उसे निविकरम संज्ञा प्राप्त नहीं हो मातो। किन्तु यह आत्मा सर्वदा विकल्पों से आक्रान्त रहला हो यह कभी भी संभव नहीं है। जिन्हें स्वसहाय केवलज्ञान हो गया है वे तो विकल्पातीत हो होते है इसमें संदेह नहीं। किन्तु जो आत्मा उमसे नीचेको भूमिकामें स्थित है वे भी स्वात्मानुभवको अवस्था में निर्विकल्प होते हैं, क्योंकि जब यह आत्मा ब्यवहारमूलक अन्य सब बिकल्पोंसे निवृत्त होकर और सविकल्प निश्चयनयके विषयरूप मात्र ज्ञायकभावका बालम्बन लेता है, अंतमें वह भी ज्ञायक भावसम्बन्धी विकल्पसे निवृत होकर निस्किल्पस्वरूप स्वयं समयसार हो जाता है। श्री समयसारजीमें कही भी है
कम्म बसमबई एवं तु जाण जयपर्ख पक्खालिक्कतो पुण भण्णदि जो सो समयसारो ॥ १४२॥