Book Title: Jaipur Khaniya Tattvacharcha Aur Uski Samksha Part 2
Author(s): Fulchandra Jain Shastri
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur
View full book text
________________
शंका १६ और उसका समाधान
७१३ इसी अभिप्रायको ध्यान में रखकर नयचक्र में निश्चयनयका स्वरूप निर्देश करते हुए कहा है
गेहह दब्बसहावं असुद्ध-सुद्धोवधारपरिचर्स ।
स्रो परमभावगाही णायचो सिलिकामण ।। १९९।। जो अशुद्ध, शुद्ध और उपचारसे रहित माष द्रव्यस्वभावको ग्रहण करता है, सिद्धिके इच्छुक पुरुषद्वारा वह परमभावनाही म्याधिकनय जानने योग्य है ||१६||
इसमें 'सिद्धिकामेण' पद ध्यान देने योग्य है इस द्वारा मंसारी जोवको उसका मुख्य प्रयोजन क्या है मह बसलाते हुए ज्ञान कराया गया है कि यदि सू अनादि अज्ञानवश अपने आई हुई परतन्त्रतासे मुक्त होकर स्वाचीन सुखका उपभोग करना चाहता है तो अनन्त विकल्पोंको छोड़कर अपनी बुद्धिमें एकमात्र उस विभक्त एकत्वका अपलम्बन ले ।
स्पष्ट है कि जो एकमात्र परम भावस्वरूप ज्ञायकभावको ग्रहण करता है और उससे भिन्न अन्य सबका निषेध करता है वह निश्चयनय (समयसार गा० १४ के अनुसार शुद्धनय) कहलाता है।
यह परम भाषग्राही निश्चयनयका निदोष लक्षण है ।
अब देखना यह है कि इस द्वारा अन्य किसका निषेध किया गया है। जैसा कि पूर्वमें ६-७ दो गाथा (समयसार) का निर्देश कर आये हैं उन पर सम्यक् प्रकारष्टिपात करने पर निषेध योग्य अन्य राब पर भावोंका ज्ञान हो जाता है । ६ वीं गाथा द्वारा शायक्रमावसे भिन्न तीन परभावोंका निषेध किया गया है। वे ये हैं-(१) प्रमत्तभाव, (२) अप्रमत्तभाव और (३) परसापेक्ष बायकभाव | तथा ७ वी गाथा द्वारा (४) अखण्ड आत्मामें भेद विकल्पका निषेध किया गया है।
यहाँ अपने आत्मासे भिन्न अन्य समस्त द्रव्य तो परभाव है हो, अतः उनका निषेध तो स्वयं हो जाता है । उनको ध्यानमें रखकर यहाँ परभावोंकी मीमांसा नहीं की गई है । किन्तु एक ही आत्मा नायकभावसे भिन्न जितने प्रकारस परभाव सम्भव है उन्हें यहाँ लिया गया है जो चार प्रकारके हैं । निर्देश पूर्वमें कर ही आये है।
यद्यपि यहापर यह कहा जा सकता है कि एक आत्मासे भिन्न अत्य अनन्त भाब भी परभाव है, उन्हें यहाँ परभाव रूपसे क्यों नहीं लिया गया है। समाधान यह है कि उन सर परभावोंका आत्माम अत्यन्त अभाव तो स्वरूपसे ही है। उनका निषेध ता स्वयं ही हो जाता है। यहाँ मात्र एक आत्मामें ज्ञायक भावसे भिन्न अन्य जितने परभाव है उनसे प्रयोजन है। जिस वस्तु के जो धर्म हैं उन्हींको उसका जानना यह सम्यक् नय है। इसी अभिप्रायको ध्यानमे रखकर पंचाध्यायी (श्लोक ५६१ ) में सम्यक् नयका लक्षण करते हुए 'तद्गुणसंविज्ञान ' ( जिस वस्तुका जो धर्म है मात्र उसे उसका जानना ) को नय कहा है।
इस प्रकार यहांतक विवेचन द्वारा विधि-निषेधमत्रसे परम भावग्राही निश्चयनयका ज्ञान हो जानेपर प्रकृतमें व्यवहारनप और उसके भेदोंकी मीमांसा करनी है। यह तो सुनिश्चित है कि अपनो गुण-पर्याययुक्त आत्माको लक्ष्य में लेनेपर यहाँ जिन्हें परमात्र कहा है वे सब धर्म मात्माक है। उनका आस्मामें सर्वथा अभाव है ऐसा नहीं है, किन्तु उनमें वन्नुतसे धर्म ऐसे है जो आगन्तुक है और जो संसारको विवक्षित भूमिका तक आत्मामें दृष्टिगोचर होते है, उसके बाद उसमें उपलब्ध नहीं होते हैं। इसलिए यदि