Book Title: Jaipur Khaniya Tattvacharcha Aur Uski Samksha Part 2
Author(s): Fulchandra Jain Shastri
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur
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शंका १३ और उसका समाधान श्रेणिके आरोहणके पूर्व धर्म्यध्यान होता है और दोनों श्रेणियों में दोनों शुक्लध्यान होते हैं ।
इसी तथ्यको तत्वार्थश्लोकवातिक और तत्वार्थवातिकमें उक्त सूत्रको व्याख्या करते हुए स्पष्ट किया गया है।
इसलिए प्रश्न होता है कि सात नामशान में भी सम्मान के गोपयोग होना चाहिए ? किन्तु वस्तुस्थिति यह नहीं है, क्योंकि धर्म्यध्यान शुभोपयोगरूप ही होता है ऐसा एकान्त नियम नहीं है। वह रागादि विकल्परहित आत्मानुभूतिरूप भी होता है और वीतराग देवादि, अणुनत-महानतादि तथा परजीव विषयक अनुकम्पा आदि रागविकल्परूप भी होता है। इनमेसे रागादि विकल्परूप धबध्यान मुख्यतया पतुर्धादि सोन गुणस्थानों में होता है और रागादि विकल्परहित धय॑ध्यान स्वस्थान अप्रमत्तसंयतके होता है। इसी तथ्यको बाचार्य जयसेनने पंचास्तिकाय गाथा १३६ की टोकामें 'रागादिविकल्परहितधमध्यान-शुक्लध्यान येन'--रागादि विकल्प रहित धर्मध्यान और गुश्लध्यान इन दोकं द्वारा--इन शब्दों द्वारा स्पष्ट किया है। स्पष्ट है कि ७ वें गुणस्थानमें स्वस्थान अप्रमत्तके षम्यध्यान होकर भी वह शुद्धोपयोगरूप ही होता है । अपेशाविशेषसे चतुफीद गुणस्थानों में भी क्वचित कदाचित शोपयोगको व्यवस्था बन जाती है। आगम प्रमाणांका उल्लेख अन्यत्र किया ही है।
समयसार माथा १२ को टोका, रागादि विकासे परिणत जोवके लिए व्यवहारनय प्रयोजनवान है, अशुद्ध सोने के समान । इसोका नाम अपरमभावमें स्थित है। ऐसे जीवके लिए प्रतादिका पालन करमा, वीतराग देवादिकी स्तुति आदि करना, बोतराग मार्गकी प्ररूपक जिनवाणी सुनना प्रयोजनवान् है। किन्तु जो १६ बणिक शुद्ध सोनके समान अभेद रत्नत्रय स्वरूप परमात्मतत्वके अनुभवन में निरत है उनके लिए व्यबहारनय कुछ भी प्रयोजनवान नहीं है यह कहा गया है । इसका अर्थ यह कहा हआ कि '१२ गुणस्थानमें
भोपयोग होता है, अतः पुण्यभावसे केवलज्ञानको उत्पत्ति होती है ?' अपर पक्षने उक्त गाथा और उसकी टीकाओंसे यह अर्थ कैसे फलित कर लिया इसका हमें आश्चर्य है। ज्ञानी जीवको अशद्ध मात्माका होना कहाँ तक सम्भव है इसका भी तो उस पक्षको विचार करना था। ६ टे गुणस्थानके आगे १२३ गुणस्थान तक एकमात्र शुद्धनय-शुद्धात्मानुभूलिरूप शुद्धोपयोग ही होता है, अतः केवलज्ञानको उत्पत्ति शुभा. चारसे न होकर शुद्धात्मानुभूति परिणत आत्मा हो उसमें प्रगाढ़ता करके फेवलशानको उत्पन्न करता है ऐसा यही निर्णय करना चाहिए ।
२. प्रवचनसार गाथा ४५ की दोनों टोकापर दृष्टिपात करनेसे विदित तो यही होता है कि यहाँ 'पुण्य' पद द्रब्यकर्म के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है। आचार्य जयसेन 'पुण्यफला अरहता' पदको व्याख्या करते हुए लिखते है
पञ्चमहाकल्याणकपूजाजनकं त्रैलोक्यविजयकरं यत्तीर्थकरनाम पुण्यकर्म तत्फलभूता अर्हन्सा मन्ति ।
पञ्चमहाकल्याणक पजाका जनक और तीन लोकको विजय करनेवाला जो तीर्थकर नामक पुण्यकर्म है उसके फलस्वरूप अरिहन्त होते है।
___ अपर पचने प्रस्तृत प्रतिशंकामें इसका थोड़ा-सा स्पष्टीकरण अवश्य किया है। किन्तु मूल शंका जिस अभिप्रायसे की गई थी उससे तो यह भान प्रगट नहीं होता था। ऐसा मालम पड़ता था कि अपर पक्ष केवलज्ञानकी प्राप्ति भी द्रव्य पुण्यकर्म या शुभाचारका फल मानता है। इसो तथ्यको ध्यान में रखकर हमने