Book Title: Jaipur Khaniya Tattvacharcha Aur Uski Samksha Part 2
Author(s): Fulchandra Jain Shastri
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur
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शंका १४ और उसका समाधान
इसपर प्रतिशंका प्रस्तुत करते हुए श्री पवल व प्रवननसारका प्रमाण देकर हमने यह सिद्ध किया था कि पापोंका बुद्धिपूर्वक त्याग किया जाता है, वे स्वयं नहीं छूटते ।
आपने दुसरे उत्तरमे हमारे द्वारा प्रदत्त प्रमाणोंको यह लिखकर कि "जितने प्रमाण दिये गये है उन सबका व्यवहारनयको मुरुपतासे ही उन शास्त्रों में प्रतिपादन किया गया है' अवहेलना की और लिखा है 'घस्तुतः विचार करनेपर पुण्यभावका चोग पाकर पापाव स्वयं छूट जाता है। इसके साथ साथ आपने यह भो लिखने का प्रयास किया है 'गृहस्य भी अगुव्रतादि पुण्यभावका त्यागकर महाव्रतरूप पुण्यभावको प्राप्त होता है। आपने इस उत्तर में भी किसी आगमप्रमाणको उद्धृत नहीं किया है।
निश्चयनयकी अपेक्षासे तो आत्मा न प्रमत्त है, न अप्रमत्त है (ममयसार गाचा ६) और न राग है, न द्वेष है,न पुण्य है,न पाप है (समयसार गाथा ५०-५५), किन्तु ज्ञायक है, अत: निश्चयनयको अपेक्षासे रागद्वेष या पुण्य-पापके छोड़ने या छूटनेका कथन ही नहीं हो सकता । जब राग-द्वेष, पुष्य, पाप व्यवहारनयको अपेक्षासे है (सममसार गाथा ५६) तो इनके छोड़ने या घटनेका कथन भी व्यबहारनयसे होगा।
श्री कुन्दकुन्द स्वामी तथा श्री अमृतचन्द्रसुरिने प्रवचनसार तया श्री वीरसेन स्वामीने ववल ग्रन्थमैं सर्व सावा योगके त्यागके विषय में लिखा है वह आपकी दृष्टि में अवास्तत्रिक है, इसीलिये आपने यह लिख दिया कि वास्तविक तो पावभाव स्वयं छूट जाता है । आप हो इतना साहस कर सकते हैं, हमारे लिये तो आर्षवाक्य वास्तविक है।
गृहस्थक संघमासयम पांचवां गुणस्थान होना है अर्थात महिलाका त्याग होता है और स्थावर हिंसाका त्याग नहीं होता। अब वह मुनिदीक्षा ग्रहण करता है तब वह रायम अंशका त्याग नहीं करता, किन्तु शेष असंयमका त्यागकर पूर्ण संयमी बन जाता है। यहां पर भी उसने शेष असंयमरूपी पापका हो त्याग किया। जब आप अपने प्रथम उत्तरमें यह स्वीकार कर चुके हो कि पुण्य स्वयं छूट जाता है उसको छहानके लिये किसी उपदेदा या प्रयत्न की आवश्यकता नहीं होती तो अब उसके विरुद्ध कैसे लिखते है कि पुण्यभावका भी त्याग किया जाता है।
संयमाचरण चारित्रके दो भेद है-१. सागार संघमाचरण और निरागार संयमाचरण चारित्र । श्री कुन्दकुन्द स्वामीने चारित्रपरहर गाथा २१ में इस प्रकार कहा है
दुविहां संजमचरणं साधार तह हवे णिरायारं ।
सामारं सांये परिग्गहरहिय ग्थल णिशयारे ।।२।। अर्थात् संयम चरणके दो भेद है-सामार संयमचरण और निगगार संघमचरण । इनमें सागार संयमघरण परिग्रहसहित गृहस्थके और निरागार संयमवरण परिग्रह यहित मुनियाके होता है ।
पंचेव पुब्वियपदं गुणव्वयाई हति सह तिण्णि ।
सिवावय चत्तारिय संयमचरणं च सायारं ॥२३॥ अर्थ-पांच अणुव्रत, तीन गुणयत और चार शिक्षाप्रत यह बारह प्रकारका सागार संयमचरण है ।
पंचेंदियसंवरणं पंच बया पंचविसकिरियास।
पंच समिदि तब गुत्ती संयमचरण णिराया ॥२८॥ अर्थ-पांच इन्द्रियों का संयर, पांच महाव्रत, पन्चौस क्रिया, पांच समिसि, तीन गुप्ति....वह निराकार संयमचरण है।