Book Title: Jaipur Khaniya Tattvacharcha Aur Uski Samksha Part 2
Author(s): Fulchandra Jain Shastri
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur
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शंका १५ और यसका समाधान
৩৬ बतलाता है वहां हमारा यह कहना है कि प्रकृतमें वंसका यह अर्थ गहीस नहीं है, क्योंकि चार पानिकों को वसरूप अकर्मपर्याय केवलज्ञानको उत्पन्न करती है ऐसा आगममें वह्नीं निर्देश नहीं है।
अपने पक्षको मिद्धिके लिए प्रतिर्शका ३ में धवला पु०७१०९० का 'खइयाए लदीए' यह सूत्रवचन उद्धृत किया गया है, जिसमें 'प्रतिपक्षी कर्म के से कार्योत्पत्ति होती है।' ऐमा बतलाया गया है,
मारे अभिप्रायको दो पुष्टि होती है। किन्तु अपर पक्षके द्वारा अपने अभियायको पहिम ऐमा एक भी उद्धरण उपस्थित न किया जा सका जिसमें कर्मको भावान्तरस्वभाव अकर्मपर्यावसे क्षाविकभावकी उत्पत्ति बतलाई गई हो।'
ऐसा प्रतीत होता है वि अपर 'पा कहाँ गलती हो रही है इसे समझ गया है, इसलिए प्रति शंका ३ में उम की ओरसे धसको भावान्तरस्वभाव कहकर अकर्म पर्याय केवलज्ञानको उत्पत्तिका जनक है इस बात पर विशेष जोर न देकर दगरी दूसरी बातोसे प्रतिशंकाका कलेवर वृद्धिमत किया गया है । और मानों हम हवंसको तुमछाभावहा मानते हैं यह बतलानेका उपक्रम किया गया है। अतः प्रकृत में चार घातियाकोके हर्बम का अर्थ क्या लिया जाना चाहिये इस पर सर्व प्रथम विवार कर लेना इष्ट प्रतीत होता है। जाप्तमीमांसा बतलाया है..
कार्योत्पादः अयो हतोनियमाल्लक्षणात्पृथक् ।
न तो जात्यागवस्थानादनपेक्षाः खपुष्पवन ॥५४॥ यत: उत्लाद और जयके होने में एक हेतका नियम है, इसलिए क्षय कार्योत्पाद हो है। किन्त लक्षणकी अपेक्षा दोनों पृथक-पृयक है। किन्तु 'सदव्यम्' इत्यादि रूपसे जाति आदिका अवस्थान होनेसे खगुरुपके समान वे सर्वथा निरोष भो नहीं है ।।५८।।
यह आप्तमीमांसाका उल्लेख है। इसमें व्यय और उत्पाद दोनों एक हेतूसे जायमान होने के कारण ध्वंस ( व्यय ) को जहां उत्तर पर्याय ( उत्पाद) रूप सिद्ध किया है वहाँ लक्षणभेदसे दोनों को पृथक-पृथक भी सिद्ध किया है । इन दोनों में लक्षणभेद कैसे है यह बतलाते हुए अष्टसहस्त्री पृ० २१० में लिखा है
कार्योत्पादस्य स्वरूपलाभलक्षणस्वारकारणविनाशस्य च स्वभावप्रच्युतिलक्षणस्वातयोभिंसालमणसम्बन्धित्वसिद्धेः ।
___ कार्योत्पादका स्वरूपलाभ यह लक्षण है और कारण विनाशका स्वभावप्रच्युति यह लक्षण है, इस प्रकार उन दोनों में भिन्न-भिन्न लक्षणोंका सम्बन्धीपना सिद्ध होता है।
इस प्रकार. इन आगम प्रमाणोंके प्रकारामें यह स्पष्ट हो जाता है कि 'चार घातिया कर्मों के लयसे केवल ज्ञान सपन्न होता है इस कथन में 'ध्वंस भावान्तरस्वभाव होता है।' इसके अनुसार चार घातिया 'कर्मों की सरूप अकर्मपर्यायको निमित्त रूपसे नहीं ग्रहण करना है, क्योंकि चार घातिया कोको ध्वंसहप
अकर्मपर्याय केवल जानको उत्पत्ति में निमित्त है ऐमा किसी भी आगममें स्वीकार नहीं किया गया है। किन्तु ध्वंसका अर्थ जो चार घातिया कर्म अज्ञानादिके निमित्त थे उनका विनाश (व्यय ) रूप अर्थ ही प्रकृतमें लेना है, क्योंकि उत्पादसे कथञ्चित् भिन्न व्ययका ग्रही लक्षण है। अतएव इस कथनसे अपर पक्षका प्रतिशंका २ में यह लिखना कि 'कि धातिया कोंको कमरूपता केवलज्ञान के प्रगट होनेम बाधक भी बत: उनका वंग । अकमकाता) केवललामक प्रगट होने में निमित्त है।' आगमसंगत न होकर हमारा यह लिखना कि 'पर्वमे जो ज्ञानापरणीयरूप कर्मर्याय अशाममात्रको उत्पत्तिका निमित्त