Book Title: Jaipur Khaniya Tattvacharcha Aur Uski Samksha Part 2
Author(s): Fulchandra Jain Shastri
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur
View full book text
________________
शंका १५ और उसका समाधान
७०९ यन्न आचार्य अकलंकदेव और आचार्य विद्यानन्दि जैसे समर्थ मदषियोंकी वाणी का प्रसाद है, इससे भी जिस अभिप्रायका हम प्रकाशन करते आये हैं उसको पुष्टि होती है। आचार्य गृविच्छका भी यही अभिप्राय है ।
पूर्व पर्यायका ध्वंस (व्यब) तुच्छाभाव है ऐसा तो हमने अपने उत्तरों में कहीं लिखा ही नहीं । स्वामो समन्तभद्र के युक्त्यनुशासनका 'भवल्यभावोऽपि' इत्यादि वचन प्रमापा है इस आशयका अपना अभिप्राय हम प्रथम प्रश्न के उत्तर के समय उत्तर के प्रारम्भमें हो प्रगट कर आये है. अतः प्रतिशंका में तुच्छामावको अप्रस्तुत चर्चा उठाकर उसके स्वण्टन के लिए 'भवत्यमाधीऽपि' इत्यादि वचनको उदधृत करना कोई मतलब नहीं रखता। चर्चाम विवि और निषेध उसी वस्तु का होना चाहिए जिस में मतभेद हो मोर जो आनुषंगिक होने पर भी प्रकरण में उपयोगी हो। हो, इस वचन द्वारा अपर पस हवंस (व्यय) को सर्वथा उत्तर पर्याय (उत्पाद) रूम मा नना चाहता हो लो उसे अष्टमहरा व अशतक पूर्वोक्त उल्लेखक आधार पर अपने अभिप्रायमें अवश्य ही संशोधन कर लेना चाहिए। इससे प्रकृत विवादक ममाप्त होनेमें न केवल मदद मिलेगो, अपितु उत्पाद-पके सम्बन्ध अपर पञ्चके द्वारा स्वीकृत सर्वथा एकत्वको एकान्त धारणाका भी निरास हो जायगा।
धवला पुरु ७ पृ० १० के 'खइयाए लडीए ॥४७॥ मूत्र की टीकाको उद्धृतकर जो 'प्रभाव जिनमतमें तुच्छाभावरूप नहीं है इस बात का समर्थन किया गया है मो वह समर्थन भी प्रकृतमें उपयोगी नहीं है, क्योंकि हमारी ओरसे अपने उत्तरों में यदि को अभावको तुच्छाभात्र सिद्ध किया गया होना तभी इस उल्लेखकी सार्थकता होतो ।
यदि अपर पक्ष घातिया कोके ध्वंस (व्यय) को सर्वथा अकर्म पर्यावरूप न लिखता तो हमारी ओर से यह आपत्ति त्रिकालमें न की जातो कि-'मोहनीय कर्मका क्षय दश गुणस्यान में होता है और नानावरणादि ३ कोका क्षय बारहवें गुणस्थानके अन्त में होता है, फिर भी केवलज्ञानकी उत्पत्तिके कथनके प्रसंगमें मोहनीय क्रमके क्षयका भी तुरूपसे निर्देश किया गया है। ऐसी यवस्था में क्या यह मानना उचित होगा कि मोहनीय कर्म का क्षय होकर जो अकर्मरूप पुद्गल वर्गणाएँ हैं वे भी केवलज्ञान की उत्पत्ति में निमित्त हैं।'
हमारी दृष्टि सर्वार्थसिद्धि के 'मोहक्षयात्' इत्यादि मूत्रके टीका वचन पर बराबर रही है और है। उसमें निहित रहस्यको भी हम समझते हैं, किन्तु अपर पक्ष द्वारा उल्लेखरूपमें इस वचनको उद्धन करने मात्रसे टंस (व्यय) को सर्वथा उत्तर पर्याय (उत्पाद) रूप मान लेने पर अष्ट सहस्रीके उक्त कथनो दाग अपर पक्षके सामने जो आपत्ति हम उपस्थित कर आये है उसका कारण नहीं हो जाता। सर्वार्थसिद्धिका उक्त टीका वचन अपने स्थान में है और अगर पक्षका व्यय और उत्णदको सर्वथा अभेवरूप स्वीकार करना अपने स्थान में है । उक्त वचनके आधारसे अपने विचारों में संशोधन अपर पक्षको करना है, हमें नहीं।
प्रनिका ३ 'प्रायः के लिबान की उत्पत्तिमें जानावरण के श्वयको अभावरूप तुच्छवस्तु बताकर कारणताका निषेध कर देते है।' या कथन मालूम नहीं किसको लक्ष्य कर पहले किया गया और बाद में उसका उत्तर प्रस्तुत किया गया। जैन परमगराको जीवन में स्वीकार करनेवाला शायद ही ऐसा कोई व्यक्ति होगा जो क्षयको सर्वथा अभावरून तुच्छत्रस्तु बसलाता हो। केवलज्ञानकी अपेक्षा निमित्तकारणमें जो प्रतिबन्धास्मकता कही है उसका व्यय हो जाता ही केवलज्ञानके प्रति प्रतिबन्धकामावरूपता है । ऐसे स्थल पर उत्पाबसे त्यय कचित् भिन्न हो लक्षित किया गया है, चार घातिया कोको ब्याप उसरपाय नहीं । इसमें संदेह नहीं कि प्रकृति में जो कोई महाशय ध्वंगको तुच्छाभावरूप समाते हों उन्हें तो अपना अज्ञान दूर करना ही है,