Book Title: Jaipur Khaniya Tattvacharcha Aur Uski Samksha Part 2
Author(s): Fulchandra Jain Shastri
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur
View full book text
________________
शंका १५ और उसका समाधान
ज्ञानावरणस्यात्यन्तक्षप केवलज्ञानं क्षायिक तथा केवलदर्शनम् ।
७०१
सर्वार्थसिद्धि [अ०२सूत्र ४
अर्थ-ज्ञानावरण के अत्यन्त क्षय ज्ञान उत्पन्न होता है, अतः वह क्षाविभाव है। इसी प्रकार केवलदर्शनको भी साविकमाव समझना चाहिये।
ज्ञानदर्शनावरणक्षयात् केवलेशाविके ।
- राजवार्त्तिक अ० २ सूत्र ४
अर्थ-ज्ञानावरण और दर्शनावरण के क्षयसे होने के कारण केवलज्ञान और केवलदर्शन क्षायिकभाव है। यही भाव उक्तवाविककी निम्नङ्कित वृतिमें भी प्रस्ट किया गया है-
ज्ञानावरणस्य कर्मणः दर्शनावरणस्य च कृत्स्नस्य क्षया केवले ज्ञान-दर्शने क्षायिकं भवतः ।
अर्थ - पूर्ववत् स्पष्ट है ।
शंका १५
मूल प्रश्न- जब अभाव-चतुष्टय वस्तुस्वरूप हैं (नवत्यभावोऽपि च वस्तुधर्म) तो दे कार्य व कारणरूप क्यों नहीं जातेसार पानि का वंश केवलज्ञानको क्यों उत्पन्न नहीं करता ?
प्रतिशंका २ का समाधान
इस प्रदनके उत्तर में यह स्पष्ट किया गया था कि 'पूर्वमें जो ज्ञानावरणीय कर्मविवशानभावको उत्पत्तिका निमित्त भी उस निमित्तका अभाव होनेसे अर्थात् अकर्मरूप परिणम जानेगे अज्ञानभाव के निमित्तका अभाव हो गया और उसका अभाव होनेसे नैमित्तिक अज्ञान पर्यायका भी अभाव हो गया और केवलज्ञान स्वभावसे प्रगट हो गया।'
प्रतिशंका २ में पुनः इसकी चरचा करते हुए ज्ञानावरणको अभावरूप अकर्मपर्यायको केवलज्ञानको उत्पत्तिका निमित्त बतलाया गया है। इसी प्रकार अन्यत्र जहाँ जहाँ भी खायिक भावको उत्पत्तिका उल्लेख कर्मोके क्षय आगममें लिखा है वहाँ वहाँ सर्वत्र प्रतिका में इसी नियमको स्वीकार किया गया है। इसके समर्थन में 'मोह'गज्ज्ञानदर्शनावरणान्तरायक्षयाच्च केवलम्।' यह सूत्र उद्धृत किया गया है।
हम वित्ति नहीं बहाते उनसे घबड़ाने का कोई कारण भी नहीं, क्योंकि जब हम यह अच्छी वह जानते हैं कि जो हमारी संसारी परिपाटी चल रही है उसमे स्वयं हम अपराधी है। जो निर्मितोंको तरहसे जो अपना इष्टानिष्ट होना मानते है, घबड़ानेका प्रसंग यदि उपस्थित होता है तो मात्र उनके सामने ही होता है ।
यहाँ तो मात्र विभार इस बातका करता है कि क्या मोहपात्' इत्यादि सूत्रमें आये हुए 'क्षय' पदसे उसकी अपको केवलज्ञानकी उत्पत्तिनिमित्तसे स्वीकार किया गया है, या वहाँ आपायका