Book Title: Jaipur Khaniya Tattvacharcha Aur Uski Samksha Part 2
Author(s): Fulchandra Jain Shastri
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur
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जयपुर (खानिया ) तस्वचर्चा
जो लिखा था उसका आशय यह है कि यदि अरिहन्त पदको प्राप्ति यथार्थमें पुण्यकर्मका फल माना जाय तो आगम में 'मोहयाज्ज्ञान-दर्शनावरणान्तरायशयाच्च केवलम् (त० सू०१०- १) इस वचनकी कोई उपयोगिता नहीं रह जायगी ।
प्रश्न १५ के उत्तर में हमने इस पर न तो कोई आपति डालो है और न आपत्ति डालो हो जा सकती है। किसी या सूर्यका आशय स्पष्ट करना इसे आपत्ति डालना नहीं कहते । प्रकृत प्रतिशंका में अपर पक्षने 'तीन लोकका अधिपतित्व' इस वाक्यके व्याशयको स्पष्ट किया है। तो क्या इसे उस वाक्यपर आपत्ति डालना कहा जायगा। यह समग्र तस्यचरचा जिनागमका निश्चय व्यवहार आदि विषयमें आशय स्पष्ट करने के अभिप्रायसे की जा रही है तो क्या इसे जिनागमपर आपसि डालना कहा जायगा ? इस प्रश्नका उत्तर अपर पक्ष स्वयं अपने विवेकसे प्राप्त कर ले। आक्षेपात्मक शब्दप्रयोग करना अन्य बात है और अपने परिणामों का संतुलन रखते हुए तत्रविमर्श करना अन्य बात है। यदि सभी साधर्मी भाई दूसरे साधर्मी भाइयोंपर कीचड़ उछालनेको भाषाका परित्याग कर विवेकके मार्गपर चलना प्रारम्भ कर दें तो इससे वीतराग मार्ग की ही प्रभावना होगी ।
4. जर पक्षने० १४ ० ८६ का नामी
कर यह सिद्ध करनेका प्रयत्न किया है कि 'पंच महाव्रत, पंच समिति, त्रिगुप्ति आदि रूप व्ववहारचारित्र १२ गुणस्थान में भी होता उस पुण्यभावसे मोहनीय कर्म तथा ज्ञानावरण, दर्शनावरण एवं अन्तरायका क्षय होता है और इस कर्मके क्षयसे केवलज्ञान उत्पन्न होता है।'
समाधान यह है कि धवला पुस्तक १४५० ८६ में अप्रमाद' पदकी व्याख्या की गई है। यहाँ लिखा है
को अप्पमादो ? पंचमहम्वयाणि पंच समदीओ तिष्णि गुप्तीओ णिस्सेलकसाग्राभावो च अप्पमादो
जमि ।
अप्रमाद क्या है ? पाँच महाव्रत, पाँच समिति तीन गुप्ति और निःशेष कषायका अभाव अप्रमाद है । यहाँ पाँच महाव्रत आदिरूप परिणामसे निःशेष कषायके अभावका पृथक् रूपसे निर्देश किया है । इससे स्पष्ट हैं कि बायें गुणस्थान में निःशेष कषायका अभावरूप अप्रमाद भाष लिया गया हैं। वहाँ आचार्यका विकल्परूप पाँच महाव्रतादिका सद्भाव दिखलाना इस वाक्यका प्रयोजन नहीं है। विकल्परूप पांच महाप्रसादि छटे गुणस्थान में हो होते हैं, आगे तो स्वरूपस्थितिरूप एकमात्र वीतराग चारित्र ही होता है। वहीं एवें गुणस्थानतक जो छेदोपस्थापना संगमका निर्देश किया है वह मात्र कपालेशके सद्भाय के कारण किया है, बतएव इस वचन आधारसे १२ वे गुणस्थान में पुण्यभाव - शुभाघारकी प्रसिद्धि करना और उससे केवलज्ञानकी उत्पत्ति बतलाना आगमसम्मत कथन नहीं कहा जा सकता ।
४. अपर पक्षने हमारा कथन बताकर लिखा है कि '१२वे गुणस्थानमें पुण्य प्रकृत्तियोंके उदयसे होनेवाले भावका नाम पुष्पभाव हैं ।'
किन्तु हमने अपने पिछले दोनों उत्तरोंपर दृष्टिपात किया है। एक तो हमने ऐसा वचन लिखा हो नहीं है। मालूम नहीं कि अपर पक्षने उक्त वचनको कल्पनाकर उसे हमारा कैसे बतला दिया। दूसरे मनुष्य गति तीर्थंकर प्रकृति ये जीवविपाको पुण्यप्रकृतियाँ हैं। इनके उदयको निमित्तकर मनुष्यगति तथा तीर्थकर आदि नोनागमभाव पर्याय होतो हैं । ये १४वें गुणस्थातक बतलाई है। इस अपेक्षासे यदि १२वे गुणस्थान में नोभागमभावरूप पुण्यभाव स्वीकार भी किया जाय तो यह कथन 'आगमानुकूल नहीं है, अपर पक्षका ऐसा