Book Title: Jaipur Khaniya Tattvacharcha Aur Uski Samksha Part 2
Author(s): Fulchandra Jain Shastri
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur
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शंका १३ और उसका समाधान
६७७ गुणधिकारका नाम पर्गय है। वे भावपर्याय और त्रिभावपर्णायके भेदसे दो प्रकार की है। इमी तथ्यको नयवक्रदिसंग्रह प्र० २६ आदिमें 1ष्ट किया है। वहां लिखा है
साभावं तु बिहावं दवाणं पजयं जिदिद।
सम्वमि च सहा विभावं जीव-पुग्गलाणं च ।।५।। जिनदर्शने द्रों का प्रयाएँ दो प्रकारकी कमी-वभाव पर्याय और विगावपर्याय । मात्रा मन दयों को होता है । विभावगर्याय मात्र जीवों और पद्गलों में होती है ॥१८॥ आगे जीवमें विभाव गुणगायों का निर्देश करते हुए लिखा है
मदिमदाहीमणपजयं च अपणाण तिगि जे भणिया ।
एवं जीवम्स इमे बिहानगुणपजया सन्चे ।।२।। आगमने जो मन, श्रत, अवधि और मनःपर्यय ये चार ज्ञान और तीन अज्ञान क., गये है, ये सब अबकी विभात्र गूगा पर्याय है ।।२४।।
जीवन मिथ्यात्व व रागादि विगाव गणपर्याय है यह तो सार हो है, इमलिा उनका यहाँ उल्लेख नहीं किया। जीवया स्वभावगुण पर्यायांका निर्देश करते हुए वहाँ लिखा है----
ri दस सुह वीरियं च उहयकम्मपरिहोणं ।
तं मुदं जाण तुम जीवे गुणपआय सच्चं ॥२६॥ जो द्रव्य भाव दोनों प्रकार के कर्मोस रहित ज्ञान, दर्शन, सुख और बोगर्याय होतो है उन सबको तुम जोवको गद्ध स्वभाव ) पर्याय जानी ।।२६॥
घमगे स्पष्ट है कि आगम भमस्त पयोंका विचार को दो प्रकार से किया गया है।
पझपार्थगिद्धघुसायमें जो २१२, २१३ और २१४ नोक लियो है ननमें नलागकि जितने अंगम गम्यग्दर्शन, मम्यग्ज्ञान और सम्यक्वारित है उतने अंशमें बन्धन नहीं है और जितने अंगमें राग है उतने अंश बन्धन है।
प्रबननगार गाथा १८०-१८१ में लिखा है
परिणाम बन्ध। जो परिणाम मग, द्वेष और मोहसे युक्त है। उममें मोह और प्रेषरूप परिणाम अशुभ है तश् शुभ और अशुगरूप गग है ।।१८।। इनमें से अन्य (अरिहन्तादि ) के विषय में जो शुभ परिणाम होता है उसे पुण्य करते है तथा इन्द्रिय विषय आदि अन्य विषयमें जो अशुभ परिणाम होता है उसे पाप करते है और जो अन्यको लाकर परिणाम नहीं होता है उसे आगममें दुःखो शवका कारण बतलाया है ॥१८१।।
गाथा १८१ की टोकामें आचार्य अमृतचन्द्र उक्त विषयको स्पष्ट करते हुए लिखते हैं
द्विविधस्तावत् परिणामः--परद्रव्यप्रवृत्तः स्वदन्यप्रवृतश्च । तत्र परवय्यप्रवृत्तः परोपरकत्वाद्विशिष्टः परिणामः । स्वद्रव्यप्रवृत्तम्तु परानुपरकत्वादविशिष्टपरिणामः। तत्रीकीही विशिष्टपरिणामस्य विशेषाशुभपरिणामोऽशुभपरिणामश्च । तत्र पुण्यपुद्गलबन्धकारणत्वात् शुभपरिणामः पुण्यम् , पापपुद्गलबन्ध