Book Title: Jaipur Khaniya Tattvacharcha Aur Uski Samksha Part 2
Author(s): Fulchandra Jain Shastri
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur
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शंका १३ ओर उसका समाधान
यथार्थ बोटराग परिणामको हो स्वीकार किया गया है, राजपरिणामको नहीं पुरुषार्थसिद्धमुनाप हिंसा और अहिंसाका विवेक कराते हुए जिनागमके सारको बड़े हो प्रांजल शब्दोंमे स्पष्ट करते हुए लिखा है
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अप्रादुर्भावः खलु रागादीनां भवस्यहिंसेति । तेषामेवोत्पत्तिहिंसेति जिनानमस्य संक्षेपः ||२४||
यथार्थ में रागादि भावोंका उत्पन्न न होना अहिंसा है और उन्हीं रागादि भावोंकी उत्पत्ति हिंसा है यह जिनागमका सार है ||१४|
यतः शुभभाव प्रशस्त रागभावरूप है, अतः वह बचका हो कारण है ऐसा निश्चय करना ही जिनमार्गको यथार्थ बढा है।
यहाँ पर कोई कह सकता है कि यदि शुभभाव शुभोदयमा व्यवहार र अन्यका हेतु है तो उसका जिनागम में उपदेश क्यों दिया गया है ? रामाधान यह है कि
शुभ
१. एक तो निवृतिरूप प्रयोजनको ध्यान रखकर उसका उपदेश दिया गया प्रवृत रहनेसे ही परमार्थको प्राप्ति हो जायगी इस दृष्टिसे उसका उपदेश नहीं दिया गया है।
२. दूसरे जिसे आत्माका निर्मल अनुभूतिमूलक भेदविज्ञान उत्पन्न हुआ है ऐसे जीवको संयमासंथम अथवा संयम आदि रूप आगेकी शुद्धिका ज्ञान करानेके हेतु आगममें ऐसा कथन आया है कि जो अपुत्र आदि १२ व्रतोंका अथवा महाव्रत आदि २८ मूलगुणोंका पालन करता है वह देशसंयमी अथवा सकलसंयमी है । आगमके इस कथनका आशय यह है कि दो कषाय या तीन कषायके प्रभावस्वरूप जिस शुद्धि के सद्भाव में उसके साथ-सान बल या महात्रतादिके शुभभाव दिनाहट होते हैं, बिना हट सहजरूपसे होनेवाले उन मावोसे अपारूप मोखरी शुद्धिका संकेत मिलता है। आगमने महाव्रत अंगीकार करो, समिति गुप्तिका पालन करो इत्यादि रूपसे जो व्यवहारका उपदेश उपलब्ध होता है उसका यहो आशय है कि जिस अकपायरूप वृद्धि के साथ-साथ बिना हट उक्त प्रकारके विकल्प होते हैं उस शुद्धिको प्रथम करो, स्वात्मावलम्बी पुरुषार्थ उक्त शुद्धिको प्राप्त करो। इस प्रकार इस प्रयोजनको लक्ष्यमें रखकर नायममें व्यवहारका उपदेश दिया गया है।
३. तोसरे समग्र रत्नत्रयकी अवस्थारूपसे ज्ञानीके वर्तते समय उपयोगको अस्थिरतावश ज्ञानका परिणाम और योगप्रवृत्ति कैसी होती है इसका सम्पदान करनेके लिए भी जिनागमद्वारका उपदेश दिया गया है ।
परमागम में व्यवहारधर्मको प्ररूपणाके ये तीन मुख्य प्रयोजन हैं। इन्हें यथावत् रूपसे जानता हुआ ही शानी होनेपर वर्तता है, इसलिए उसके प्रवृत्ति व्यवहारमंके होनेपर भी निश्चयको क्षति नहीं पहुँचती ज्ञानी के निश्वानयने साध्यानभाव इस दृष्टि बनता है, अन्य प्रकार से नहीं 1
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अपर पक्षने भावकों और मुनियोंके जिस आवश्यक कमौका निर्देश किया है वे निश्चय भी है और व्यवहाररूप भी।
नियममार इनका स्पष्ट निर्देश किया है। निश्चय प्रतिक्रमणका स्वरूप निर्देश करते हुए बाबा कुंद कुंब वहाँ लिखते है