Book Title: Jaipur Khaniya Tattvacharcha Aur Uski Samksha Part 2
Author(s): Fulchandra Jain Shastri
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur
View full book text
________________
६८४
__ जयपुर (खानिया) तस्वचर्चा मोत्तण बयणरयणं रागादीभावधारणं किच्चा ।
अपाणं जो शायदि तस्स दु होदि त्ति पडिकमणं ॥१३॥ वचन रचनाको छोड़कर तथा रागादि भावोंका वारणकर जो आत्माको पाता है उसके प्रतिक्रमण होता है ॥५३||
यह निश्वय प्रतिक्रमणका स्वरूप है। आचार्य निश्चय प्रायश्पकका स्पष्टीकरण करते हए गाया १४३. १४४ में बतलाते है कि जो श्रमण अशुभ भाव सहित वर्तता है वह अन्यवश (पराधोन) श्रमण कहलाता है, इसलिये उसके तो प्रावश्यकरूप कर्म होता हो नहीं। किन्तु जो श्रमण नियममें शुभ भावसे वर्तता है वह भी अन्यवश घमण है, इसलिये उसके भो आवश्यक कर्म नहीं होता।
___ यह उक्त दोनों गाथाओंका आशय है । इससे यह बिल्कुल स्पष्ट हो जाता है कि जहाँ निश्चयधर्म होता है वहीं प्रशस्त रागादिरूप परिणाममें व्यवहारधर्मका उपचार किया जाता है। निश्चय धर्म यथार्थं धर्म है और व्यवहारधर्म उपचार धर्म है।
अपर पक्षका कहना है कि जिन आगम में गृहस्थों के लिये देवपूजा, गुरूपास्ति तथा दान और मुनियों के लिये स्तवन बन्दना प्रतिक्रमण प्रत्यारूपान आदि रूप व्यवहार धर्म नित्य षडावश्यक कार्योंपे गमित किया है। यदि यह कार्य मात्र बन्धके हो कारण है तो क्या महषियोंने बन्ध कराने और संसारमें खाने को उपदेश दिया हैं । ऐसा कभी सम्भव नहीं हो सकता है। इनको इसी कारण आवश्यक बतलाया है कि इनसे मोक्षप्राप्ति होतो है।'
समाधान स्वरूप सर्वप्रथम तो हमारा कहना यह है कि वस्तु विचारके समय यदि अपर पर ऐसे तर्कको उपस्थित नहीं करता तो यथार्थ के निर्णय करने में अनुकुलता होती। ऐते तक श्रद्धालु जोवोंको भावनाको उद्वेलित करने के लिए हो दिये जाते है, इसलिए ये यथार्थका निर्णय करने में सहायक नहीं हुआ करते ।।
अब रही यह बात कि आचार्योंने इनका उपदेश क्यों दिया है सो इस प्रश्नका समाधान हम इसी उत्तरमे पहले कर आये है।
परमार्थरूप मोशहेतुके सिवाय अन्य जितना कर्म है उसका प्रतिषेध करते हुए आचार्य कुन्दकुन्द समयसारमें लिखते हैं
मोत्तण णिच्छयटुं ववहारेण विदुसा पवति ।
परमट्टमस्सिदाण दु जदीण कम्मक्खो विहिभो ।।१५६॥ निश्चयनयके विषयको छोड़कर विद्वान व्यवहाररूपसे प्रवर्तते हैं, परन्तु परमार्थके आश्रित यतियों के हो कर्मों का नाश आगममें कहा गया है ॥१५६।।
उचत गायाकी उत्थानिकामें आचार्य जयसेन लिखते हैं
अथ निश्चयमोक्षमार्गहेतोः शुद्धात्मस्वरूपाद् यदन्यच्छुभाशुभमनो-वचन-कायध्यपाररूपं कर्मतन्मोक्षमार्गो न भवति इति प्रतिपादयति ।
अब निश्चय मोक्षमार्गके हेतु शुदात्मस्वरूपसे अन्य जो शुभ और अशुभ मन, वचन, कायके व्यापाररूप कर्म है वह मोक्षमार्ग नहीं है यह बतलाते है ।
व्रत, तप आदि शुभोपयोग या व्यवहारधर्म यथार्थ मोक्षमार्ग क्यों नहीं है इसका स्पष्टीकरण उक्त गाथाको टीकामें दोनों आचार्योंने स्पष्ट किया है। आचार्य अमृत चन्द्र लिखते हैं