Book Title: Jaipur Khaniya Tattvacharcha Aur Uski Samksha Part 2
Author(s): Fulchandra Jain Shastri
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur
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शंका १३ और उसका समाधान पंचाध्यायो पृ. २६७ के भावार्थका यह आशय तो है नहीं कि अशुमसे निवृत्ति मौर शुभमें प्रवृत्ति होने मावसे निश्चय धर्मकी प्राप्ति हो जाती है। क्या ऐसा है कि कोई व्यक्ति २५ मूलगुणोंका अच्छी तरहसे पालन कर रहा है, इसलिये उसे अधःकरण आदि तीन करण परिणाम किये बिना निषचय सम्यग्दर्शन की प्राप्ति हो जावेगी? यदि नहीं तो व्यवहार धर्मसे निश्चम धर्मको प्राप्ति होती है ऐसा कहनेकी उपयोगिता हो क्या रह जाती है इसका अपर पक्ष स्वयं विचार करे । यहाँ यह सदाहरण अनादि मिथ्यादृष्टि और जिसका वेदक काल व्यतीत हो गया है-ऐसे स्वादि मिथ्याष्टिको लक्ष्यमें रखकर उपस्थित किया है । स्पष्ट है कि निश्चय धर्मकी प्राप्तिके समय परावलम्बी व्यवहारधर्मरूप विकल्प छूट कर स्वका अबलम्बन होना आवश्यक है। समयसार गाथा १४५ में जीवके शुभ भावको व्यवहारनपसे मोक्षमार्ग बतलाया है, परन्तु बन्धमार्गके आश्रित होनेसे वहीं शुभ और अशुभ दोनोंको एक कर्म कहा है।
अपर पक्षने यही पं० जयचन्द्रजीके अनुवादसे और दिल्ली संस्करणसे जो वचन उद्धृत किये है वे अधूरे हैं । भ्रमका निरास करने के लिये यहाँ हम उन्हें पूरा दे रहे हैं-'शुभ अथवा अशुभ मोक्षका और बन्धका मार्ग ये दोनों प्रश्रक है, केवल जीवमय तो मोक्ष का मार्ग है और केवल पुद्गलमय बन्धका मार्ग है। वे अनेक है एक नहीं है, उनके एक न होनेपर भी सेना पुदगलमय अन्धमाकी माश्चितता के कारण भाषयके अभेदसे कर्म एक ही है।
अपर पदाने प्रवचनसारको आचार्य जयसेनकृत-टीकासे 'तं देवदेवदेव' यह माथा उद्धृत की है। इसके आशयको स्पष्ट करते हुए स्वयं आचार्य जयसेन लिखते है
से तदागधनफलेन परम्परयाक्षयानन्तसौख्यं यान्ति लमन्त इति सूत्रार्थः । वे उनकी आराधनाके फलस्वरूप परम्परा अक्षयानन्त सुखको प्राप्त करते है यह उक्त गाथाका अर्थ है। इससे यह व्यवहार (उपचार) नय वचन है यह सुतरां सिद्ध है ।।
मोक्षप्राभुतको ८२वौं गाधाम व्यवहार और निश्चय दोनों का निरूपण है। यही तथ्य उसकी ५२वीं गाथामें स्पष्ट किया गया है। सो इसका कोन निषेध करता है। मोक्षमार्गी जीवकी सविकल्प दशामें क्या परिणति होती है और निर्विकल्प दशामें क्या परिणति होतो है यह हमने अनेक बार स्पष्ट किया है। अपर पक्ष यदि यह कहना त्याग दे कि व्यवहारघमसे निश्चयधर्मकी प्राप्ति होती है तो विवाद ही समाप्त हो जाय । मोक्षमागीके व्यवहारधर्म होता ही नहीं यह तो हमारा कहना है नहीं। ऐसो अवस्था, वह्न इन प्रमाणोंको उपस्थित कर क्या प्रयोजन साधना चाहता है यह हम नहीं समझ सके !
अपर पक्षने रयणसार और मूलाचारकी भी कतिपय गाथायें उपस्थित को है। उनमें भी पूॉक्त तथ्यको ही स्पष्ट किया गया है। नियम यह है कि निश्चयनय यथार्थका निरूपण करता है और व्यवहारनय अन्यके कार्यको अन्यका कहता है । इन लक्षणोंको ध्यान में रखकर उक्त सभी गाथाओं के अभिप्रायको स्पष्ट कर लेना चाहिये। जिन गायाओंमें जिनके अन्तरंग गुणांका निर्देश है वह निश्चय कथन है।
धवला पु०१J. ३०२ के वचन का यह आशय है कि सम्पष्टिके द्वादशांगमें श्रद्धा नियमसे होती है । इसलिए यहाँ वादशांगभक्तिको हो व्यवहारसे संसार विच्छेदका कारण कहा गया है।
परमात्मप्रकाशमें सम्यग्दृष्टिके देव-गुरु-शास्त्रविषयक सम्यक् श्रद्धाका निर्देश किया गया है । यह सम्यक्त्वका बाह्य लक्षण है । इससे अन्तरंगको पहिचान होती है। इसलिए जिसकी सच्चे देव, २८ मूल
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