Book Title: Jaipur Khaniya Tattvacharcha Aur Uski Samksha Part 2
Author(s): Fulchandra Jain Shastri
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur
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जयपुर ( खानिया ) नत्वचची हो जाता है । स्पष्ट है कि इस गाधाका आशय ही इतना है कि द्रम्प, गुण और पर्यायरूपसे जो अरिहन्तको जान लेता है उसे उस रूपसे अपने आत्माका ज्ञान नियमये हो जाता है, क्योंकि निश्चयनयगे रहन्तके स्वरूपमें और अपने स्वरूपमें अन्तर नहीं है। जो आत्मा इस प्रकार आत्मस्वरूपको जानकर तत्स्वरूप परिणमता है उसका मोह नियमसे विलयको प्राप्त होता है यह तथ्य उक्त गाथामें प्ररूपित किया गया है। इसलिए इस परसे अपर पक्षने जो आशय लिया है वह ठीक नहीं है।
अपर पक्ष ने व्यापारका उदाहरण उपस्थित किया है, किन्तु उससे भी यही सिद्ध होता है. कि राग, ध, भोजन महानि है, . सात्मलाभ होना सम्भव नहीं है।
समयसार गाथा १२ में यह नहीं कहा गया है कि व्यवहारधर्म में परमार्थकी प्राप्ति होती है, अत: इससे भी अगर पक्ष के अभिप्रायका समर्थन नहीं होता। अपर पक्षने यहां जो जक्त गाथात्रामवार्थ उद्धन किया है उसका बापाय स्पष्ट है। यथापदवी व्यवहार प्रयोजनवान है इसका निषेध नहीं। निषेध यदि किसी बातका है तो व्यवहारके अवलम्बनसे परमार्थ की प्राप्ति होती है इसका, क्योंकि व्यवहार कर्मम्वभाव वाला है और परमार्थ ज्ञानस्वभाववाला है, अतः परावलम्बी कर्मस्वभाववाले व्यवहारसे म्वावलम्बी वानस्वभाववाले परमार्थको प्राप्ति त्रिकाल में होना सम्भव नहीं है। इससे स्पष्ट है कि जब सम्पष्टिका व्यवहारधर्म निश्चयधर्मका यथार्थ साधन नहीं, ऐमी अवस्थाम मिथ्याष्टिका व्यवहार निदचयधर्मकी प्रास्तिका यथार्य साधन कसे हो सकता है।
'उइ जिणमयं पवनह' इस माथामें दोनों नयोंको स्वीकार करनेकी बात कही गई है। उसका वाशय यह है कि यदि व्यवहार नयको नहीं स्वीकार किया जायगा तो गुणस्थानभेद और मागंगास्थान भेद आदि नहीं बनेगा और निश्चयनयको नहीं स्वीकार किया जायगा तो तत्वकी व्यवस्था नहीं बन सकेगी। इसमे यह कहाँ कहा गया है कि व्यवहारधर्मके वगैर निश्चयधर्मकी प्राप्ति नहीं होतो । मायाम कोई दुसरी बात कही गई हो और उससे दूसरा अभिप्राय फलित करना यह कहाँ तक ठीक है इसका अपर पक्ष स्वयं विचार करे।
अपर पक्षने मिष्ठान्न का उदाहरण दिया है सो इस उदाहरणसे हमारे पक्षका ही समर्थन होता है, क्योंकि जैसे मिष्ठान्नके स्वादको इच्छावाला व्यक्ति मिष्ठानका ही अबलम्बन करेगा, आमका नहीं; तसी प्रकार नात्मानुभूतिका इच्छुक व्यत्रित आत्माका ही अवलम्बन करेगा, अम्मका नहीं । इसीलिए तो आगम कहता है कि परावलम्बो व्यवहारघमसे स्वावलम्बी आत्मधर्मकी प्राप्त नहीं हो सकती।
अनाविभेदबासित बुद्धिबालेके लिए भेदनयका अवलम्बन लेकर श्रद्धान क्या है और श्रद्धान करने योग्य क्या है वह जामकर आत्माके अवलम्बनसे मोक्ष मार्ग में प्रवृत्त होना चाहिये यह तथ्य आचार्य अमूलचन्द्र ने अनादिभदवासितबुद्धयः 'इम वनन द्वारा स्पष्ट किया है। इसमें व्यवहारधर्मसे निदयधमकी प्राप्ति होती है यह नहीं कहा गया है। हम पहले समयसार कलश १५ का 'पप ज्ञानधनों' इत्यादि बचन जतकर आये है । उसी तथ्यको यहाँ दूसरे शब्दों में स्पष्ट किया है। अनादि भेदवासित बुद्धिवालाको दूसर प्रकारसे मोक्षमार्गको प्राप्ति होती है और दुसरीको दूसरे प्रकार से उसकी प्राप्ति होती मिध्यादष्टि हो या सादि मिथ्याष्टि, जैसे इन्हें प्रथमोपशम सम्यक्त्वको प्राप्त करनेका एक ही मार्ग है वैसे ही मोक्षमार्गको प्राप्त करनेका एक हो मांगे हैं--परसे भिन्न स्वको जानकर उसका अवलम्बन करना, मोक्षमार्गको प्राप्त करने या उसमें उत्तरोत्तर विशुद्धि प्राप्त करने की अन्य समस्त क्रिया उसी आधार पर होती है।