Book Title: Jaipur Khaniya Tattvacharcha Aur Uski Samksha Part 2
Author(s): Fulchandra Jain Shastri
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur
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जयपुर (खानिया ) तस्व
साधना होती है। अतः पुण्यबन्ध भो मोचा साधक है। महान आचाप इसे सातिशय पुण्य कहा और इससे रस आदि पदकी प्राप्ति बनाई है।
निन्दु' नरहितपरिणामोपार्जिततार्थ करत दुत्तम संहननादिविशिष्टपुण्यरूपधर्मोऽपि (सिद्धगते ) सहकारी कारणं भवति ।
अर्थ — निदानरहित परिणाम उपार्जित तीर्थकर प्रकृति तथा उत्तम संहननादि विशिष्टरूपी धर्म भी सिद्धतिका सहकारी कारण होता है।
- पंचास्तिकाय गाथा ८५ श्री जयसेनाचार्यकुल टीका अरहन्तवाद प्रायः तीर्थकर पदके लिये प्रयोग होता है। श्री प्रवचनसार गा० ४५ में जो कहा है। 'पुष्णफला भरहन्ता' यहाँ यदि पुष्यका आशय पुण्य द्रव्यकर्मसे लिया जाय तो अरहन्तका अर्थ तीर्थंकर होता है | तीर्थंकर प्रकृति सबसे उत्कृष्ट पुष्य प्रकृति है । उसका उदय १३वें गुणस्थान से ही प्रारम्भ होता है। उसके उदयसे हो तीर्थंकर पदको प्राप्ति होती है। यदि पुण्य का अर्थ भाव पुण्य लिया जाय तो श्रो समयसार प्रमाणोंसे यह सिद्ध हो हो जाता है कि पुण्यभाव ( व्यवहार धर्म ) से केवलआपने पूछा कि 'मोहक्षयज्ञान दर्शनावरणान्तरायक्षया केवलम् की डालते हुए लिखा है कि रूमके
गाथा १२ आदि उपर्युक्त ज्ञानकी प्राप्ति होती है। संगति कैसे बैठ सकती है
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यमे केवलज्ञान नहीं होता है। दसवें तथा बारहवें गुणस्थानकी मिश्रित अखण्ड पर्यायका नाम पुण्यभाव है। पंच महाव्रत, पंच समिति, त्रिगुप्ति आदि रूप व्यवहारचरित्र १वे गुणस्थान में भी होता है । ( देखिए श्री भवन पुस्तक १४ पृ० ८६ ) उस पुण्यभावसे मोहनीय कर्म तथा ज्ञानावरण, दर्शनावरण एवं अन्तरायका क्षय होता है और इन कर्मोंके क्षयरो के बलशान उत्पन्न होता है। इस प्रकार संगति ठीक बंटतो है, न बैठनेका प्रश्न ही नहीं होता है । आपका यह लिखा कि १२ गुणस्थान में पुण्यप्रकृतियोंके उदयसे होनेवाले भावकर नाम पुण्प्रभाव है- आगमानुकूल नहीं है ।
"तीन लोकका अधिपतित्व' इन शब्दोंस स्व-स्वामी सम्बन्ध बतलानेका आशय नहीं है। इनका जयं हे तीन लोके प्राणियों द्वारा पूज्य ऐसा पद अर्थात् तोर्थंकर पद । जैसे कहा जाता है "शिवरमणि बरी - शिववधूके पति आदि । क्या इन शब्दों द्वारा पति-पत्नी सम्बन्ध द्योतित करनेका आशय है ? कदापि नहीं। इन शब्दों से शिवपदको द्योतित किया जाता है। सर्वसाधारण भी इस बात को जानते है । अतः स्व-स्वामी सम्बन्धको लाना, निष्परिग्रह तथा उनचार आदि कथन करना मागमका विपर्यास अर्थ करना ही हो सकता हैं, अन्य कुछ नहीं ।
यदि मिथ्यादृष्टि भी परमार्थकी अपेक्षा व्यवहार धर्म पालन करता है तो उसके लिए वह सम्पत्वको प्राप्तिका कारण होता है । आगममें सम्यक्त्वकी उत्पत्तिके प्रत्यय बतलाते हुए जिनबिम्बदर्शन तथा जिनमहिमा दर्शन भी प्रत्यय ( कारण ) बतलाये है । ( श्री दल पु० ६ पृ० ४२ श्री सर्वार्थसिद्धिम० १ सूत्र ७ की टीका आदि ) | मिध्यादृष्टिको हो तो सम्यक्त्व को उत्पत्ति होगी । सम्यग्दृष्टि सम्यक्त्यको उत्पत्तिका प्रश्न हो पैदा नहीं होता है। जिनदर्शनरूप शुभ भाव मिथ्यात्व के खण्ड-खण्ड हो जाते हैं और सम्यक्त्व प्राप्ति होती है— इसके कुछ प्रमाण ऊपर दिये जा चुके हैं । २-३ प्रमाण नीचे और जिये जाते है -
कथं जिणविदंसणं पढमसम्म सुपतीए कारणं ? जिणाबिंबदंसणेण णिधक्षणिकाचिदस्य वि मिच्तादिकम्म कलाषस्स खयदंसणादो ।'
श्री वल पु०, ६५० ४२७