Book Title: Jaipur Khaniya Tattvacharcha Aur Uski Samksha Part 2
Author(s): Fulchandra Jain Shastri
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur
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जयपुर (वानिया ) तत्त्वचची अणुव्रत-महाव्रतका आवरण तो कुछ दूरको बास है, किन्तु जिनेन्द्र भगवान्का दर्शन करनेरूप पुण्य भाव भी कर्मनिर्जराका कारण होनेसे धर्मरूप है । घबल ग्रंथमें इसका समर्थन करते हुये थी वोरसेन आचार्य ने लिखा है:
कधं जिणचिदंसर्ग पढमसम्मत्तुष्पत्तीए कारणं ! जिणबिंबदसणेण णिवत्तणिकाचिदस्स वि मिएकत्तादिकम्मकलावस्त रषयदसणादो ।
-धवल पुस्तक ६ पृ. ४२७ अर्थ-प्रश्न-जिनेन्द्र प्रतिमाका दर्शन प्रथम सम्यक्त की उत्पत्तिमें किस प्रकार कारण है ?
उत्तर-जिनेन्द्र भगवानकी प्रतिमाका दर्शन करनेसे निधत्ति निकाचितरूप मिथ्यात्व आदि कर्म समूहका क्षय हो जाता है।
जयधवल में शुभ परिणामोंको कर्मक्षयका कारण बतलाते हुए श्री वीरसेन आचार्य लिखते है :सुहसुद्धपरिणामेहि कम्मक्खयाभावे तक्त्रयाणुववसीदो ।
जय-धवल पु. १ पृ.५ अर्थ-शुभ और शुद्ध परिणामोंगे यदि कोका क्षय होना न माना जावे सो फिर किसी तरह कर्मोका क्षय ही हो सकेगा।
अर्थात् शुभ परिणामों (पुण्यभाबों) से भी कोका क्षय हुमा करता है।
श्रीबीरसेन स्वामी श्री धवल सिद्धान्त ग्रंथमें शुभोपयोगरूप धर्मध्यानका कर्म निर्जराके लिये कारण रूपमें उल्लेख करते ए निम्मप्रकार कथन करते है :
जिणसाहुगुणुक्कितणपसंसणा घिणयदाणसंपण्णा !
सुहसीलसंजमरदा धम्मरमाणे मुणेयम्वा ॥५५॥ किं फलमेदं धम्मज्माणं ? अक्खवयेसु विउलामरसुहफलं गुणसेणीए कम्मणिज्जराफलं च । खवएसु पुण असंखेज्जगुणसेढीकम्मपदेसणिज्जरणफलं सुकम्माणमुक्कस्साणुभाग-विहाणफलं च । अतएव धर्मादनपेतं धबध्यानमिति सिहं ।
-धवल पु. १३ पृ०७६-७७ अर्थ-जिन और साधुके गुणोंका कीर्तन करना, प्रशंसा करना, विनय करना, दान सम्पन्नता, श्रुत, शोल और संचममें रत होना-ये सब बातें धमध्यानमें होती है, ऐसा जानना चाहिये।
बांका-इस घमध्यानका क्या फल है ? ।
समाधान--अक्षाफ जीवोंको देवपर्यायसम्बन्धी विपुल सुख मिलाना उसका फल है और गुणश्रेणी में कर्मको निर्जरा होना भी उसका फल है। तथा क्षचक जीवोंके तो असंख्यात मुणवेणीरूपसे कर्मप्रदेशोंकी निर्जरा होना और शुभकर्मोके उत्कृष्ट अनुभागका होना उसका फल है । अतएव जो धर्मसे अनऐत है वह धर्मध्यान है, यह बात सिद्ध होती है । घो अमृतचन्द्र सूरि व्यवहारधर्मके विषय में लिखते हैं :
असमनं भाषयतो रत्नत्रयमस्ति कर्मबन्धी यः । स विपक्ष क्रतोऽवश्यं मोक्षोपायो न बन्धनोपायः ॥२११॥
-पुरुषार्थसिद्धयुपाय