Book Title: Jaipur Khaniya Tattvacharcha Aur Uski Samksha Part 2
Author(s): Fulchandra Jain Shastri
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur
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जयपुर (खानिया ) तत्वचर्चा गुनी आय (आमदनी) करता है। यह व्यापारी बराबर ध्ययको कम करता जाता है और आयको बढ़ाता जाता है। उस व्यापारमें प्रय होते हुए भी क्या उस व्यापारको व्यय या हानिका मार्ग कहा जा सकता है ? कदाधित नहीं कहा जा सकता है। वह तो आयका ही मार्ग है। इसी प्रकार शभोपयोगी जीव वीतरागताको प्राप्तिके लिये वीतराग देव, गुरु तथा शास्त्रका आश्रय लेता है और उनकी भक्ति पूजाधि करता है। इसमें जितना रागांश है उससे प्रशस्त बन्ध भी होता है, किन्तु विरक्ति अंश द्वारा बन्धसे निर्जरा कई गुनी अधिक होती है, क्योंकि वह उस समय सांसारिक इच्छाओं तथा भोगोसे एवं पंच पापसे विरक्त हैं। इस प्रशस्त बन्धसे भी ऐसी सामग्री (व्य, क्षेत्र, काल तथा भव) प्राप्त होती है जो मोक्षमार्गको माधक होती है। वह स्वयं वीतरागताको बढ़ाता हुआ शुभरागको छोड़ता जाता है और इस प्रकार विशुद्धि बड़तो जाती है । अन्तमें सम्पूर्ण मोहनीय कर्मका क्षय कर परम वीतरागी हो जाता है। ऐसी दशामे प्रशस्त बन्ध होते हुए मी, क्या उस शुभ भाव (व्यवहार धर्म) को बन्धका मार्ग कहा जा सकता है? कदापि नहीं कहा जा सकता है। यह तो मोक्षका ही मार्ग है अर्थात् संसार सागरके पार करने को तीर्थ है ।
श्रो समयसार गाथा १२ व उसकी टीकामें भी यही कथन किया है कि जब तक आत्मा शुद्ध न हो जाय तबतक व्यवहार प्रयोजनवान् है। एक प्राचीन गाथा देकर यह सिद्ध किया है कि व्यबहार छोड़ देनेसे तीर्थ (माग) छूट जायया । यह स्पष्ट ही है कि मार्ग छूट जाने पर मोक्ष को प्राप्त नहीं किया जा सकता है।
सुद्धो सुद्धादेसो गायत्रो परममावदरिसीहि । घबहारदेसिदा पुण जे दु अपरमे लिंदा भावे ॥१२॥
-समयसार अर्थ--जो शुद्धनय तक पहुँचकर श्रद्धावान् हुये तथा पूर्ण ज्ञान चारित्रवान हो गये उन्हें तो शुद्ध (आरमा) का उपदेश (आशा) करनेवाला शुद्धनय जानने योग्य है और जो जीव अपरम भावमें-अर्थात् श्रद्धा तथा ज्ञान चारित्रके पूर्ण भावको नहीं पहुँच सके हैं, साधन अवस्था हो स्थित है वे व्यवहार द्वारा उपदेश करने योग्य हैं।
टीकाका उत्तरार्ध-ये सु प्रथमहितीयाद्यनेकपाकपरंपरापच्यमानकातस्वरस्थानीयमपरमं भावमर्नुभवति तेषी पर्यतपाकोतीर्णजात्यकार्तस्वरस्थानीपरमभावानुभचनशून्यत्वादशुद्ध द्रव्यादेशिसयोपदर्शितप्रतिविशिष्टैकभावानेकभावो व्यवहारनयो विचित्रवर्णमालिकास्थानीयवास्परिज्ञासमानस्तदावे प्रयोजनवान्, तीर्थतीर्थफलयोरित्यमेव व्यवस्थितस्यात् । उक्तं च-जन जिणमयं पवजह ता मा घवहारणिच्छप, मुयह । एकण विणा किन तिथं अण्णण उण तच्च ।
अर्थ-जो पुरुष प्रथम, द्वितीय आदि अनेक पाकों (तावों) को परम्परासे पच्यमान अशुद्ध स्वर्णके समान जो (वस्तुका) अनुत्कृष्ट-मध्यम भावका अनुभव करते हैं उन्हें अन्तिम सावसे उतरे हुए शुद्ध स्वर्णके समान उत्कृष्ट भावका अनुभव नहीं होता, इसलिये, बद्ध द्रव्यको कहनेवाला होनसे जिसने भिन्न-भिन्न एकएक भावस्वरूप अनेक भाव दिखलाये है ऐसा व्यवहारनय विचित्र अनेक वर्णमाला के समान होनेसे जाननेमे आता हुअा उस काल प्रयोजननात् है, क्योंकि तीर्थ और तीर्थक फलकी ऐसी ही व्यवस्थिति है। (जिसे तिरा जाये वह तीर्थ है, ऐसा व्यवहार धर्म है, और पार होना व्यवहार धर्म का फल है अथवा अपने स्वरूपको प्राप्त होना तीर्थफल है)। अन्यत्र भी कहा है कि यदि तुम जिनमतका प्रवाना करना चाहते हो तो व्यवहार