Book Title: Jaipur Khaniya Tattvacharcha Aur Uski Samksha Part 2
Author(s): Fulchandra Jain Shastri
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur
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जयपुर ( खानिया) तत्वचर्चा प्रत्युत्तरमें देखकर तो आश्चर्यका ठिकाना ही नहीं रह सकता है। कारण कि जिसने अंदा में ज्ञानावरण कर्मका उदय जीवमे विद्यमान रहता है उससे तो ज्ञानका अभावरूप अज्ञान ही होता है जिसे द्रव्यकमके बन्धका कारण न तो आगममें माना गया है और न आपने ही माना है। आपके द्वितीय वक्तव्य में स्पष्ट लिखा हुआ है कि 'अज्ञानरूप मोह, राग, द्वेष परिणाम तथा योग द्रव्यकर्म के बन्धके निमित्त हैं।'
यह हमारे पूर्वोक्त वाक्यके सन्दर्भ में अपर पक्षका वक्तव्य है । प्रसन्नता है कि इस अपर पक्षद्वारा उस वाक्यांशको सदोष बतलानका उपक्रम नहीं किया गया जिरा द्वारा संसारी जोवके अज्ञानरूप रागादिभावों और योगको निमित्तकर ज्ञानावरणादि दसकर्मके बन्धका विधान किया गया है। आर पक्षको उक्त उद्धृत वाक्यका उत्तरार्द्ध सदोष प्रतीत हुआ है। किन्तु उसने यदि सावधानीसे उक्त वाक्यांदा पर विचार किया होता तो हमें विश्यास है कि वह इस अप्रासंगिक चर्चासे इस प्रतिशंकाके कलेवर को पुष्ट करनेका प्रयत्न नहीं करता। कारण कि उक्त वाक्यके पूर्वार्ध द्वारा जहाँ ज्ञानावरगादि कर्मबन्धके निमित्त कारणोंका निर्देश किया गया है वहाँ उसके उत्तरार्ध द्वारा ज्ञानावरणादि कर्मों के उदयको निमित्त कर होने वाले जीवके अज्ञान, अदर्शन, अचारित्र और अदानशीलता आदि अज्ञानरूप भावोंका निर्देश किया गया है । ये भाव जीवके चैतन्य स्वभावको स्पर्श नहीं करते, इसलिए इन सबको अज्ञानरूप कहा गया है। मालूम नहीं कि अपर पक्षने उक्त वाक्यमें आये हुए 'अज्ञानरूप जीवभावों इतने कैयनको देखकर उनसे अज्ञानरूप राग द्वेष, मोह तथा योगका परिग्रह कैसे कर लिया। यदि गगादि भाव अज्ञानरूप माने जा सकते है तो अज्ञान, अदर्शन आदि भायोको अज्ञानरूप मानने में आपत्ति ही क्या है । जो राग-द्वेषादि भाव ज्ञानावरणादि कर्मके हेतु है उनका नामोल्लेखपूर्वक निर्देश जब अनन्तर पूर्व हो किया है ऐसो अवस्थामें अज्ञानरूप जीवभावोंसे अज्ञान, अदर्शन आदि औदयिक भाव लिये गये है यह अपने आप फलित हो जाता है। अतएव अपर पक्षने जो इस प्रकारको आपत्ति ठाई है वह ठीक नहीं है, इतना संकेत करने के बाद हम उनके उस निष्कर्ष पर सर्व प्रथम विचार करेंगे जो उस पक्षने इस आपत्तिके प्रसंगसे फलित किया है । वह निष्कर्ष इस प्रकार है
'वास्तविक बात तो यह मालूम देती है कि मोक्षमार्गमे सिर्फ वस्तुस्वरूपके ज्ञानको ही महत्त्व दिया जा रहा और चारित्रके विषय में तो यह स्याल है कि वह तो अपने नियति के अनुसार समय आने पर ही हो जायगा, उसके लिए पुरुषार्थ करनेको आवश्यकता नहीं है। बस ! एक यही कारण मालम देता है कि चन्धके कारणों में ज्ञानावरण कम के उदयसे होनेवाले ज्ञानके अभावरूप अज्ञानभावको कारण मानना आवश्यक समझा गया है और यह वाक्य लिखा गया है कि 'नानावरणादि कर्मोका उदय अज्ञानरूप जीवभावों के होने में निमित्त है।' आदि।
सो इप्तका उत्तर यह है कि जब किसीके मन में दूसरोंके प्रति विपरीत धारणा वन जाती तो वह किसी भी कथनसे उल्टा-सीधा कुछ भी अर्थ फलित कर स्वयं भ्रममें पड़ता है और दूसरे के लिए भी भ्रमका मार्ग प्रशस्त करता है। हमें तो प्रकृतमें अपर पक्षका ऐसा हो आचरण प्रतीत होता है, क्योंकि अपर पक्षने जिम मातको आपस्ति योग्य माना है उसमें तो केवल इतना ही बतलाया गया है कि ज्ञानावरणादि कमौका उदय किन भावोंके होने में निमित्त है । वे भाव कर्मबन्धके हेतु है यह बात उसमें जब कही ही नहीं गई ऐसी अवस्थामें हमने ज्ञानावरण कर्मके उदयमें होनेवाले अज्ञान भावको कर्मबन्धका हेतु बतलाया, यह बात अपर पक्षने कैसे फलित कर ली, आश्चर्य है। हमारे वाक्यमें ज्ञानावरण के साथ 'आदि' शब्द जुड़ा है।