Book Title: Jaipur Khaniya Tattvacharcha Aur Uski Samksha Part 2
Author(s): Fulchandra Jain Shastri
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur
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जयपुर (खानिया ) तत्त्वधर्चा बाद भी रागसे अनुरंजित जपयोगके काल में क्रियाधर्म तो होता ही है, उसका निषेध नहीं। बात केवल इतनी है कि ज्ञानो पुरुष उसे केवल अपना स्वभाव न मानकर उसरूप प्रवृत्ति करता हुआ भी निर्विकल्प समाधिको ही हितकारी मानता है जो कि सम्यक्त्वारिक स्वरूप है। पं० प्रबर आशाघरजीने सागारधर्मामृत का प्रारम्भ करते हुए 'सद्धमरागिणाम्' पद देकर यह प्रसिद्ध किया है कि अन्सरङ्गमें जिनके मुनिधर्म (आत्मधर्म) में गाढ़ प्रीति उत्पन्न हुई है उसीका गार्हस्थ्य जीवन सफल है। सविकल्प दशामें यथापदवी व्यवहारधर्म जहाँ उस उस काल में प्रयोजनीय माना गया है, वहाँ उसके होते हुए भी आत्मकार्य में सावधान रहना जीवन माना गया है।
यह आध्यात्मिक उपदेशको पद्धति है। इसो पद्धतिका अनुसरण कर अनादिकालसे सर्वत्र अध्यात्मके उपदेश दिये जानेकी परिपाटी है। ऐसी अवस्थामें प्रतिशंका ३ में प्रवृल विषयको लक्ष्य रखकर जो भाव व्यक्त किया गया है उसे मात्र कल्पनाके कुछ भी नहीं कहा जा सकता।
निवति किसो एक कार्यक लिए आगममें स्वीकार की गई हो और दूसरेके लिए स्वीकार को गई हो ऐसा नहीं है। साथ ही कोई एक कार्य पुरुषार्थपूर्वक होता हो और दूसरा बिना पुरुषार्थके हो जाता हो ऐसा भी नहीं है । इनका गीण मुख्यपना विवक्षामें हो सकता है, कायमें नहीं । इसी प्रकार जो भो कार्य होता है उसका कोई निमित न हो यह भी नहीं है। एकान्तके प्रति आग्रहवान् व्यक्ति हो ऐसो कल्पना कर सकते है कि अमुक कार्य मात्र पुरुषार्थ से होता है, अमुक कार्य मात्र निर्यात के अनुसार अपने आप हो जाता है और अमक कार्य मात्र निमित्तके बलसे होता है। जिन्होंने अपने जीवन में अनेकान्तस्वरूप आत्मधर्मका रसास्वाद लिया है में त्रिकाल में ऐसी मिथ्या कल्पना नहीं कर सकते । कार्यमें पुरुषार्थ, नियति, निमित्त आदि सबका समनाम है ऐसा निश्चय जिनके चित्तमें है वे ही मोक्षमाग के पायक बनने के अधिकारी हैं। अतएव जैसे आत्मविवेकको जागृत करनेके लिए परम पुरुषार्थको आवश्यकता है उसी प्रकार आत्मस्थितिरूप चारित्रको संपादित करने के लिए भी निरलसभावसे आत्मपुरुषार्थी होना भी आवश्यक है । सब आत्मकायोंक सम्पादन में पुरुषार्थ प्रथम कर्तव्य है। अतएव चचनीय विषयों में से प्रथम चर्चनीय विषयका उत्तर देते हुए हमने जो यह लिखा है कि 'ज्ञानावरणादि कमों का उदय अज्ञानरूप जीवभावोंके होने में निमित्त है।' सो उक्त वाक्यको सदोष बतलाते हुए उसपरसे अन्यथा कल्पना करना थेयस्कर नहीं है।
हम प्रथम प्रश्नके उत्तरमें यह लिख आये है कि 'जैसा कि भावलिग होने पर व्यलिंग होता है, इस नियमले भी सिद्ध होता है।' आदि, सो इस वाक्यके ऊपरमे भी अपर पक्षने अपने मनगढन्त विचार बगा लिये है । उसने यदि इस वाक्यके आगे लिखे गये पूरे कथनपर ध्यान दिया होता और उसके सन्दर्भ में इस वाक्यको पढ़ता सो आशा थी कि वह अपनी कल्पित कल्पनाओंसे प्रतिशंकाके कलेवरको नहीं सजाता । स्या यह सच नहीं है कि भावलिंगके अभाव में नग्नता आदि रूप धारण किया गया लिंग मोक्षमार्गकी प्राप्तिमें अणमात्र भी साधक नहीं है? और क्या यह सच नहीं है कि ऐसे भावशन्य द्रव्यलिंगको धारण कर जो महानुभाव तलवारको धारपर चलने के समान विविध प्रकारका कायक्लेदा करते हैं उनका वह कायकलेश मोक्षमार्गकी प्राप्तिमें अणमात्र भी साधक नहीं है। लिग सत्यार्थपनको तमो प्राप्त हो सकता है जब वह भावलिंगका अनुवर्ती बनना है । इमी तथ्यको हमने प्रथम शंकाके उत्तरमें 'भावलिंगके होनेपर द्रवलिंग होता है।' इत्यादि वाक्यों द्वारा व्यक्त किया था । हमारे द्वारा व्यक्त किये गये थे भावपूर्ण वचन इस प्रकार है
'जमा कि भावलिंगके होनेपर द्रव्यलिंग होता है इस नियम से भी सिद्ध होता है। यद्यपि प्रत्येक मनुष्य भावलिंगके प्राप्त होने के पूर्व ही दम्पलिंग स्वीकार कर लेता है. पर उस द्वारा भावलिंगको प्राप्ति