Book Title: Jaipur Khaniya Tattvacharcha Aur Uski Samksha Part 2
Author(s): Fulchandra Jain Shastri
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur
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जयपुर (खानिया ) तत्वचर्चा
होगा, क्योंकि निमित्त-नैमित्तिक भाषरूप कार्यकारणभाव तथा व्यवहार इन दोनोंको आप अपचरित, कल्पना. . रोपित और असद्भुत ही स्वीकार करते हैं। ऐसी हालतमें ६ द्रव्योंके परस्पर संस्पर्श और विशिष्टतर परस्पर अत्रगाह इन दोनों में अन्तर ही क्या रह जायगा ? यह आप ही जानें ।'
सो इस आपत्तिका समाधान यह है कि पर पक्षने ६ द्रब्यांके परस्पर संपर्श और विशिष्टतर परस्पर अवगाह इन दोनों में दान्तर ही क्या रढ़ जायगा ! हममे ऐसा प्रश्न करके संभवतः इस बातको तो स्वीकार कर लिया है कि छह द्रव्यांका परस्पर संस्पा उपचरित, कल्पनारोपित और असद्भुत ही है। केवल वह पक्ष विशिष्टतर परस्पर अन्नगाहको उपचरित सत स्वीकार करनेस हिचकिचाता है। उसके हिवकिचानेका कारण यह मालूम देता है कि वह समझता है कि यदि ऐसे अवगाह ( बन्ध ) को उपचरित मान लिया जायगा तो निमित्त-नैमित्तिकसम्बन्धको व्यवस्थाः गड़बड़ा जायगी। किन्तु वस्तुस्थिति यह नहीं है। देखिए, लोकमें थी का घड़ा ऐसा व्यवहार होता है, किन्तु ऐसा व्यवहार होनेमात्रसे बड़ा घीका नहीं हो जाता। मात्र अन्य घड़ासे विवक्षित चड़ेका पृथक ज्ञान कराने के अभिप्रायमे ही मिट्टी के घड़ेको घीका घड़ा कहा जाता हैं। इसी का नाम लोकव्यवहार है। उसी प्रकार जिस दृश्यको वितषित पर्यायमें निमित्त व्यवहार किया गया है बह विवक्षित कार्यको उत्पन्न करता हो ऐसा नहीं है, किन्तु उसके सदभावमें उपादानने अपना जो कार्य किया है उसको सिद्धि या ज्ञान उस द्वारा होता है ऐमी बाह्य व्याप्ति देखकर ही उसे विवक्षित अन्य प्रकी पर्यायका निमित्त यह संज्ञा प्राप्त होती है और उसके सद्भाव में हमा कार्य नैमित्तिक कहा जाता है, इसलिए निमिसनैमित्तिक व्यवहारको उपचरिता असद्भुत मानकर कार्यकारणपरम्पराके रूप में उसे स्वीकार कर लेनेपर भी लोकम और बागममें किसी प्रकारको बाथा उपस्थित नहीं होती। यदि अपर पक्षके मतानुसार निमित्त ध्यवहारयोग्य बाह्य सामग्रीको कार्यका जनक यथार्थ स्पर्म स्वीकार किया गया होता तो आगममें उसे व्यवहार हेतु न लिखकर यथार्थ हेतु लिखा गया होता, किन्तु आगम उसकी सर्वत्र श्यवहार हेतुरूपसे ही घोषणा करता है, ऐसी अवस्थामें अन्य द्रब्यकी पर्याय में निश्चयका ज्ञान करानके अभिप्रायसे किये गये निमित्त व्यवहारको उपचरित मानना हो समीचीन है । आगममें इस प्रकारके सत्योंका निरूपण करते हुए गोम्मटसार जौवकाण्डमें लिखा है
जणवद सभ्मदि ठवणा णाम रूवे पद्धच्चववहारे । संमावणे य भावे उवमाए दसविहे सच्चे ॥२२॥
जनपदसत्य, सम्मतिसत्य, स्थापनासत्य, नामसत्य, रूपसत्य, प्रतीत्यमत्य, व्यवहारसत्य,, सम्भावनासत्य, भावसत्य और उपमासत्य इस प्रकार सत्य १० प्रकारका है ।।२२।।
अपर पक्ष यह भलीभाँति जानता है कि जिसका जिमचन्द्र या कोई दूसरा नाम रखा जाता है उसमें उस नाम शब्दस व्यक्त होनेवाले अर्थकी प्रधानता नहीं होती, फिर भी उससे उसी व्यक्तिका ज्ञान होता है। इसलिये नामकी सत्यमें परिगणना की गई है। एक स्थापनासत्य भी है। जिसमें अरिहंतपरमेष्ठी की स्थापना की जाती है उसमें अनन्त ज्ञानादि गुण नहीं पाये जाते, फिर भी बुद्धिमें उसके आलम्बनसे इष्टार्थकी सिद्धि होती है, इसलिये स्थापनाकी सत्यमें परिगणना की गई है। इसी प्रकार इन सत्यों में और भी कई ऐसे सत्य हैं जिन्हें नममादि नयोंकी अपेक्षा स्वीकार किया गया है। अतएव दो द्रव्योंके मध्य विवक्षित पर्यायोंको अपेक्षा निमित्तनैमित्तिक सम्बन्धको उपचरित स्वीकार कर लेने मात्र से लोकव्यवहारमें किसी प्रकारकी बाधा उपस्थित होती है ऐसा तो नहीं है। हाँ, छह द्रव्योंके परस्पर संस्पर्श तथा विशिष्टतर परस्पर अवगाह इन दोनों को जो पृथक