Book Title: Jaipur Khaniya Tattvacharcha Aur Uski Samksha Part 2
Author(s): Fulchandra Jain Shastri
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur
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जयपुर (खानिया ) त
यथायोग्य होनेवाली पर्यायोंको स्वप्रत्यय स्वाभाविक व परप्रत्यय और वैभाविक स्वरप्रत्यय परिण ही अन्तत करना चाहिए इसी प्रसंग एक नमूनेदार यह वाक्य भी लिखा है कि 'जैन संस्कृति स्वकी अपेक्षा रहित केवल परके द्वारा किसी वस्तुके परिणमनको नहीं स्वीकार किया गया है।' विचारकर देखने पर विदित होता है कि इस वाक्य सर्वप्रथम यह चतुराई की गई है कि जो विध्य है उसे विशेषण बताया गया हूं और जो विशेषण है उसे विशेष्य बनाकर अपने अभिप्रायकी पुष्टि की गई है। साथ ही यह जाहिर करने के लिए कि आचार्य कुन्दकुन्द कृत समयसार से भी हमारे उक्त अभिप्रायकी पुष्टि होती है, उसकी गाया ११ और १२३ तथा उपका टीका वजन भी प्रमाणस्य उद्धृत किया गया है उद्धृत वचन जो अर्थ किया गया है वह क्यों ठीक नहीं हूँ इसका विचार तो हम आगे करनेवाले है। कर देना चाहते है कि इस बार अनेक स्थलोंपर अपर पक्षाने जैनदर्शन या उनके स्थान में जैन संस्कृति शब्दका प्रयोग किया है। ऐसा करने में जो भी रहस्य हो उसे तो अपर पक्ष हो जाने प्रतिकामे ऐसे प्रयोगका खुलासा न होनेके कारण हम उसे सर्वत्र जैनदर्शन वा जैन धर्म के अर्थ हो स्वीकार करेंगे |
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यहाँ मात्र इतना संकेत धर्मका प्रयोग न कर
दूसरी बात यह है कि उस वचन द्वारा विशेष्यविशेष बनाकर जो यह स्वीकार किया गया है कि प्रत्येक परिणमन में 'स्व' की अपेक्षा रहती है, वह तो विचारणीय है ही, साथ हो यहाँ 'स्व' पदसे क्या अभिप्रेत है यह स्पष्ट न हो वह भी विचारणीय है। राम मोरसे विचार करने पर विदित होता है कि है यह वाक्य भ्रामक ही प्रतियांक ३ में इस वाक्य द्वारा भले हो जैन संस्कृतिको उद्घोषणा की विचार कर देखने पर यही विदित होता है कि इस वाक्यमें जो कुछ भी कहा गया है वह जैन नहीं ही है । इससे जैन संस्कृति पर पानी फिर जाएगा इतना अवश्य है ।
गई हो पर संस्कृति ती
अब थोड़ा इस वाक्य में जो कुछ कहा गया है उसके विधिपरक अर्थ पर विचार कीजिए—
इसका विधिपरक निर्देश होता है कि 'स्व'को अपेक्षा सहित 'पर' के द्वारा परिणमन सभी वस्तुओंका जैन संस्कृतिमें स्त्रीकार किया गया है।' यह उक्त वाक्यका विधिपरक निर्देश है। इससे स्पष्ट ज्ञात होता है कि अपर पक्ष अपना यह मत जैन संस्कृतिके नामपर प्रचारित करना चाहता है कि प्रत्येक परिणयनमें 'स्व' की अपेक्षा रहती है अवश्य पर होता है वह दूसरे के द्वारा हो। आश्चर्य है कि ऐसे विनापूर्ण वचनको जैनसंस्कृतिको विशेषता घोषित किया गया है। कदाचित् ईश्वरवादी ऐसा वचन प्रयोग करें तो उनके लिए वह क्षम्य है, जन-संस्कृतिके वाहकों द्वारा तो ऐसा धन प्रयोग भूल भी नहीं होना चाहिए।
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अब हम प्रकृत विषय पर आते हैं। प्रकृतमें यह विचार चल रहा है कि सब क्योंमें जितनी भी पर्यायें होती है उन सबका वर्गीकरण करने पर वे ३ प्रकारकी न होकर मात्र २ ही प्रकारको होती है जहाँ कहीं साधारण निमित्तोंकी विवक्षावश स्वभाव पर्यायोंके वर्णनके प्रसंगसे परप्रत्यय शब्दका प्रयोग हुआ भी है तो इसमें मात्र पर्यायोंकी विविधताका समर्थन नहीं किया जा सकता, क्योंकि आगम में इन्हीं पर्यायोंको स्व प्रत्यय पर्याय कहा है । और जहाँ केवल स्वप्रत्यय पर्यात्रांका लक्षण आया है वहीं इन्हीं को लक्ष्यमें रखकर निर्दिष्ट किया गया है। आगे हम उदाहरण के रूपमें यहाँ कुछ ऐसे प्रमाण उपस्थित करेंगे जिनसे प्रतिपांका में स्वीकृत स्वाभाविक स्वन्नर प्रत्यय पर्यायें हो स्वभाव पर्यायें हैं यह भलीत ज्ञात हो जाएगा, क्योंकि जहाँ भो 'स्वप्रत्यय' शब्दका प्रयोग हुआ है वह इन्हीं के लिए हुआ है। सर्वप्रथम प्रमाणस्वरूप अनन्तसुखको कोजिए । इसका विवेचन करते हुए आचार्य कुन्दकुन्द प्रवचनसार हैलिखते