Book Title: Jaipur Khaniya Tattvacharcha Aur Uski Samksha Part 2
Author(s): Fulchandra Jain Shastri
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur
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अयपुर (खानिया ) तस्वचर्चा बे स्वरूपसे स्वतःसिस परद्रव्यके कार्यके कारण नहीं है। अतएब दोनों में कारणताको यथार्थ माननेका आग्रह करना उचित नहीं है एसा यहाँ रामवाना चाहिए।
यह लिखना कि 'कार्योत्पादन में निमित्त और उपादान दोनों ही एक दूसरेका मुख ताकनेवाले हैं' अति साहसकी बात है । विचारकर देखा जाय तो यह ऐसा साहसपूर्ण कथा है जो व्यके लक्षण पर ही सीधा प्रहार करता है । ऐमा मानने पर तो किसी भी वस्तुका स्वरूप स्वतःसिद्ध नहीं बनता है। वस्तुके स्वरूपका विवेचन करते हुए पंचाध्यायीमें लिखा है--
सर सल्लाक्षणिक सन्मानं वा यतः स्वतःसिद्धम् ।
तस्मादनादिनिधनं स्वसहायं निर्विकल्पं च ॥४॥ जिस दर्शनमें वस्तुका वस्तुत्व हो प्रतिसमय अर्थक्रियाकारित्व माना गया हो उस दर्शन पर ऐसी बात लादना आश्चर्य ही नहीं महान आश्चर्य है। कोई ऐसा लण नहीं जब प्रत्येक द्रव्य अपना कार्य न करता हो और कोई ऐसा क्षण नहीं जब उपाधि योग्य अन्य द्रव्यका योग न मिलना हो | यह सहज योग है । इसे मिथ्या विकल्पों द्वारा बदला नहीं जा सकता । ऐसा स्वीकार कर लेने पर किसीको किसीके पीछे नहीं चलना है और न किसीको किसी का मुंह ही ताकना है। सब अपनी-अपनी स्थिति में रहते हुए परस्परकी अपेक्षासे अपने-अपने योग्य उचित व्यवहारके अधिकारी होते हैं। कार्यसे सर्वथा भिन्न पर द्रव्यको पर्यायमें कर्ता आदि व्यवहार करने को उपातिका निर्देश करते हुए पंडितश्वर आवाघरजी अनगारधर्मामृत अ० १ में लिखते हैं
कीमा पजनी मिन्ना येन निश्चयसिद्धये ।
साभ्यन्ते व्यवहारोऽसौ निश्चयस्तदभेदरक ।।१२०१॥ जिसके द्वारा निश्चयकी सिद्धि के लिए कर्ता आदिक वस्तुसे भिन्न साधे जाते है बह ब्यवहार है और कर्ता आदिकको वस्तुसे अभिन्न जानने वाला निश्चय है ।।१२०॥
इस प्रकार विवक्षिस पर्यायषत अन्य द्रव्यमें मिमित्त व्यवहार क्यों किया जाता है और इसमें भी कर्ता आदिरूप व्यवहार करने का क्या प्रयोजन है यह आगमानुसार सम्यक् प्रकारस ज्ञात हो जानेपर न तो उपादान और निमित्त इनसे किसीको परमुखापेक्षी मानकी आवश्यकता है और न ही किसीको किसीके पीछे लगनेकी आवश्यकता है । अपने-अपने उपादान के अनुसार प्रत्येक मा प्रत्येक समयमै विवक्षित कार्यरूपसे परिणमसे है और उस उस कार्य में निमित्त व्यवहारके योग्म अन्व द्रव्योंको प्रत्येक समयकी पर्याय निमित व्यवहारको प्राप्त होतो रहती हैं। ऐसी कार्यकारणपरम्पराके अनुसार वस्तुमर्यादा है और इसीलिए उनमें यथायोग्य उपादान-उपादेय व्यवहार और निमित्तनैमित्तिक व्यवहार प्रत्येक कालमें बनता रहता है। स्वामी समन्तभद्रनं बाह्येतरोपाधि' ( स्व० स्तो०, इलोक ६० ) इत्यादि इकोक इसी अभिप्रायसे निबद्ध किया है । सभी कार्यों में बाह्य और आभ्यन्तर उपाधिको समग्रताका होना द्रव्यगत स्वभाव है यह व्यवस्था भी तभी बनती है जब पूर्वोक्त कथनको पूरी तरह स्वीकार कर लिया जाता है। प्रकृतम हमें इस बातका आश्चर्य होता है कि एक ओर तो प्रतिशंका ३ में प्रत्येक कार्यके प्रति निमित्तोंका व्यापार इसलिए आवश्यक बतलाया जाता है कि उसे न स्वीकार किया जायगा तो धर्मादि द्रव्याम कुटस्थता आ जायगो और दूसरी मोर अनन्त अनुरुलघुगुणोंकी षट्गुणी हानि-वृष्विरूप प्रत्येक समयके कार्यको बाह्य उपाधिके बिना केवल आभ्यन्तर उपाधिजन्य स्वोकर करके भी उसमें कूटस्थता नहीं मानी जाती है और फिर आश्चर्य इस