Book Title: Jaipur Khaniya Tattvacharcha Aur Uski Samksha Part 2
Author(s): Fulchandra Jain Shastri
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur
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शंका ११ और उसका समाधान विनसा परिणामिनः कारणान्तरानपेक्षोपादादित्यव्यवस्थानात् , तद्विशेषे एव हेनुभ्यापारोपगमात् ।
विलसा ( स्वभावसे ) परिणमनशील द्रव्यका दूसरे कारणोंको अपेक्षा किये बिना उत्पादादित्रयको यवस्था है, प्रत्येक समय में होनेवाली पर्याय विशेष हो हेलका व्यापार स्वीकार किया है।
इस प्रकार यह निश्चित होता है कि प्रत्येक द्रव्यमें उत्पादादिप्रय स्वभावसे होते हैं उनमें कारणान्तरों को अपेक्षा नहीं होतो, अन्यथा यह द्रव्य का स्वभाव नहीं माना जा सकता। फिर भी एक समयकी पर्यायसे जो दुगरे समयकी पर्याय भेद होता है तो उस भिन्न पर्यायको उत्पन्न तो करता है स्वयं द्रश्य हो, किन्तु उस पर्यायको उत्पन्न करते समय अन्य प्रग्यको जिस पर्यायको उपाधि बनाकर वह उस पर्यायको उत्पन्न करता है उस उपाधि ) में निमित्तानेका व्यवहार होने के कारण उसकी सहायतासे उसने उम पर्यायको उत्पन्न किया यह व्यवहार किया जाता है। इस व्यवहारको उपचरित माननेका यही कारण है । इसलिए ऐसे व्यवहारको उपचरित माननेसे न तो किमी द्रव्यमें कूटस्थता आती है, न अन्य व्यको जिस पयायमें निमित्त व्यवहार किया गया है वह असद्भुत ठहरती है और न ही विवक्षित द्रव्यमें जो कार्य हा है वह भी असदभुत ठहरता है। ऐसा होने पर भी निमित्त व्यवहार असदभुत है ऐसा मानने में कोई बाधा गो नहीं आनी ।
प्रतिशंका ३ में ज्ञानके उपयोगाकार परिणमनको दृष्टान्तरूपमें उपस्थित कर ज्ञेयभूत पदार्थो को उसका निमित्त बतलाया गया है पो इन शेयभूत पदाको प्रकृतम ज्ञापक निमित्तोंके रूप में स्वीकार किया गया है या कारक निमित्तोंके रूप में यह प्रतिशंका ३ में स्पष्ट नहीं किया गया है। वैसे जिस अभिप्रायकी पुहिम उपमोगाकार परिणमनको उल्लिखित किया है उससे तो ऐसा ही विदित होता है कि प्रतिशंका ३ में ज्ञेयभूत पदार्थों को उपयोगाकार परिणमनके कारकनिमित्तरूपले हो स्वीकार किया गया है और इस प्रकार बौद्धमतका अनुसरणकर उपयोगाकार परिणमनकी उत्पत्ति ज्ञेयोंके आधित स्वीकार की गई है। किन्तु यदि अपर पक्षको यहो मान्यता है तो उसे आममसम्मत नहीं कहा जा सकता, क्योंकि आगम ( तत्त्वावलोकवार्तिक मा० १ ० १४ ) में निमित्त दो प्रकारके बतलाये हैं-नापक और कार । जयभत पदार्थ उपयोगके ज्ञापक. निमित्त है, कारक निमित्त नहीं । अतएव प्रकृतमें यह उदाहरण लागू नहीं होता ऐसा यहाँ समझना चाहिए ।
समतुलाका खुलासा करते हुए प्रतिशंका ३ में जो यह भाव व्यक्त किया गया है कि 'स्व-परप्रत्यय परिणमनम उपादानभूत और निमित्सभन वस्तुओंमें विद्यमान कारणभावकी परस्पर विलक्षणता रहते हुए भी कार्योत्पत्ति में दोनों को समान अपेक्षा होती है।' सो प्रकृतमें यही विचारणीय है कि उपादानसे विलक्षण निमित्तरूपसे स्वीकृत उनमें रहनेवाली वह कारणतः क्या वस्तु है जो उनमें पाई जाती है। यदि उनकी उम रूपसे कार्यक्रे साथ बाह्य पाप्तिका होना इसी कारणताका व्यवहार किया जाता है तो यह जिनागममें स्वीकृत है। इसके सिवाय अन्य किमी प्रकारको यथार्थ कारणता उनमें बन नहीं सकती, क्योंकि कायं पृथक
व्यका परिणाम है और जिनमें उस कार्यको अपेक्षा निमित्त व्यवहार हआ है वे गरी सर्वथा भिन्न है। इन दोनोंमें परस्पर अत्यन्ताभाव है। जो कार्यका स्वचतुष्टय है, उसका निमित्त व्यवहारके योग्य अन्य द्रव्यों में अत्यन्ताभाव है और उनका अर्थात् निमित्त व्यवहारके योग्य अन्य द्रव्योंका जो स्वतृष्टय है उसका कार्य द्रव्यमें अत्यन्ताभाव है। ऐसी अवस्था में एकमें कार्य वर्म रहे और उसका कारण धर्म दूसरे में रहे यह कैसे हो सकता है अर्थात् त्रिकालमें नहीं हो सकता। इसलिए वास्तविक कारणताको अपेक्षासे दोनोंको समतुलामें नहीं बिठाया जा सकता। यही कारण है कि उपादानमें कारणता परमार्थभूत स्वीकार को गई है बद्न स्वरूपसे स्वतःसिड उपादान है और जिनमें निमितव्यवहार किया जाता है उनमें वह कार णता उपवरित है, वाक
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