Book Title: Jaipur Khaniya Tattvacharcha Aur Uski Samksha Part 2
Author(s): Fulchandra Jain Shastri
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur
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शंका ११ और उसका समाधान
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आमाका परिणाम दो प्रकारका है (१) स्वाभाविक (२) बायतुक इनमें स्वरूप होने अनन्त ज्ञानादि स्वाभाविक परिणमन है और कमंदय निमित्तक अज्ञानादि दोष यागन्तुक परिणमन है । इस प्रकार पर्वा दो ही प्रकारकी होती है इसका समर्थन समग्र जैन वाम करता है। जिन सीसरे प्रकारकी पर्यायाँका उल्लेख अपर पक्षने किया है वास्तव में यह उसका पूरे जैनागमको सम्यक प्रकारान न लेने का ही फल है ।
३. उपाधिके सम्बन्धमें विशेष खुलासा
यहाँ प्रकरण संगत होनेसे मोटा उपाधिके सम्बन्धमे स्पष्टीकरण कर देना आवश्यक प्रतीत होता है। एक ऐसी ध्वजा लीजिये जो बागृसे संयोग कर रही है और एक दूसरा ऐसा पत्थर लीजिए जो बासे संयोग नहीं कर रहा है। देखने पर विदित होगा कि जिसके साथ वायुके संयोगरूप उपाधि लगी हुई है वह स्वयं बायुके ईश्मरूप गुणकी योग्यतावाली होनेसे रण परिणाम परिणत वायुके संयोगको निमित्त कर स्वयं तदनुरूप लहराने लगती है और दूसरा पत्थर जो कि अपने में ईरण गुणका अभाव होनेसे वायु संयोग नहीं कर रहा है, उपाधिरहित होनेके कारण स्थिर बना रहता है अर्थात् नहीं लहराता है किन्तु यहाँ ध्वजा और पत्थरके इन दोनों प्रकारके परिणमनेकाको निमित्तता है, अवगाहनमे आकाश प्रकीनिमित्तता है। तथा ध्वजा फहराने में धर्मद्रव्यकी निमित्तता है और पत्थरके स्थिर रहने में अधमं द्रव्यकी निमित्तता है तथापि इन काल आदि द्रव्योंके रहनेपर भी इनको निमित्त कर उन दो किसी में भी सोपाधिपना दृष्टिगोचर नहीं होता। इससे स्पष्ट विदित होता है कि साधारण निमित्त विशेष उपाधि संज्ञान प्राप्त होने के कारण इनको अपेक्षा स्वभाव को सोपाधि कहना उपयुक्त नहीं है। अतः पर्याय दो ही प्रकारको होती है-एक स्व प्रत्यय या स्वभाव पर्यायें और दूसरी स्व-परप्रत्यय या विभाव पर्मायें। इनके सिवाय जिनके होनेने साधारण निमित्त भी नहीं है ऐसी कोई तीसरे प्रकारकी पर्यायें होती हों ऐसा जिनागमका अभिप्राय नहीं है ।
४. गाथाओंका अर्थ परिवर्त्तन
यह तो मानी हुई बात है कि जो भी परिणमन होता है वह 'स्व' में होता है, 'रूप' के द्वारा होता है और वह स्वयं कर्ता वनकर स्वतन्त्ररूपसे उस परिणयनको करता है, क्योंकि कर्ताका 'स्वतन्त्रः कर्ता' मह लक्षण बरामें तभी घटित होता है। इतना अवश्य है कि यदि वह सोपाधि परिणमनको करता है तो वहाँ उसका भी निर्देश किया जायगा समयसार गाया ११६ से लेकर १० गाथाओं द्वारा प्रत्येक के इसी परिणाम स्वभावकी सिद्धि की गई है। किन्तु प्रतिशंका में अपने अभिप्रायकी पुष्टि के लिए उनमेसे ३ कतिपय गाथानोंके अर्थमें परिवर्तन किया गया है। आगे हम मही स्पष्ट करके बतानेवाले है कि उन गाथाओं और उनके टीका वचनों जो अरिवर्तनका उपक्रम किया गया है उसकी पुष्टि उन गाथाओं और उनके टीका वचनों कथमपि नहीं होती । वे गाथा ११८ और १९३ हैं । ११८ गाया इस प्रकार है
जीवो परिणाम पुगलदष्वाणि कम्मभावेण |
ते सयमपरिणमंते कदं णु परिणामयदि वेदा ॥ ११८ ॥
और यदि पुगको फर्म से परिणमाता है तो स्वयं कर्मरूपसेन परिणमन करते हुए उनको चेतन जीव कैसे परिणमाता है ।। ११८||
यह इस गाथाका शब्दार्थ है । इसके प्रकाश में प्रतिशंका ३ में किये गये इसके अर्थको पढ़िये-