Book Title: Jaipur Khaniya Tattvacharcha Aur Uski Samksha Part 2
Author(s): Fulchandra Jain Shastri
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur
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जयपुर ( खामिया) तस्य चर्चा
'जीव यदि पुद्गलयको कर्मभावसे परिचत कराता है तो उस पुद्गल द्रव्यमें निजकी परिणत होनेकी योग्यता के अभाव में जीव द्रव्य उसको कैसे ( कर्मरूप ) परिणत करा सकता है।
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गाथा ११६ से १२० तरुको गाथानोंका एक पंचक है। उनमें से बोधकी ११८ संख्याको गाथा लेकर और उसका अर्थ बदलकर उसके द्वारा प्रतिका में अपने अभिप्रायको पुष्टि करनेका प्रयत्न किया गया है। उक्त गाथाके तीसरे पादमें 'ते सयमपरिणमंत' पद है। इसका अर्थ होता है 'स्वयं नहीं परिणमनेवाले उनको किन्तु प्रतिशंका में इसका अर्थ किया गया है— 'उम पुद्गल द्रव्यमें निजकी परिणत होने को योग्यता के अभाव में जीव द्रव्य उसको ।'
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इसी प्रकार गाया १२३ के 'तं सयमपरिवर्त' पदके वर्धमें तथा गाथा ११८ को आत्मरूपाति टीकाके 'न तावत् वत्स्थयमपरिणममानं परेण परिणामयितुं पायेंत' इस वचनको उद्धृत कर इसके न तावत् स्वयमपरिणममानं' पदके अर्थ में भी परिवर्तन किया गया है।
गाया ११६ से लेकर १२५ तककी गाथाओं द्वारा पुद्गल और जीवका स्वयं कर्ता होकर परिणामीपना aa किया गया है। उसी अर्वको पुष्टि उक्त दो गाथायें और उनका टीका वचन आया है। इन द्वारा यह बताया गया है कि जो और जो-जो परिणाम ( पर्याय ) होते हैं उनको ने स्वयं स्वतन्त्ररूपये कर्ता बनकर करते हैं । किन्तु प्रतिशंका ३ में इस अभिप्रायको तिलाञ्जलि देकर उक्त प्रमाणों द्वारा यह सिद्ध करने का प्रयत्न किया गया है कि जोव और पुल मात्र परिणमनेको योग्यता होती है। स्वयं परिणमना उनका अपना कार्य नहीं उन्हें परिणमाना उपाधिका कार्य है। यदि उक्त गाथाओं और उनके टोका वचनोंका यही अर्थ होता तो उन गाथाओं की उक्त टीकामें जो यह कहा गया है कि - 'स्वयं परिणममानं तु न परं परिणमयितारमपेक्षेत । न हि वस्तुशयः परमपेक्षन्ते ।' – 'स्वयं परिणमनेवाला तो परिणमानेवाले दूसरेकी अपेक्षा करता नहीं, क्योंकि वस्तुतियों दूसरेको अपेक्षा नहीं करती।' सो इसके कहने की क्या आवश्यकता थी। इससे सिद्ध है कि प्रतियंका में अपर पाने उक्त गाथाओं और उनके टोका वचनका जो अर्थ किया है वह समीचीन नहीं है।
बाने प्रतिशंका ३ में तत्वावातिक और सर्वार्थसिद्धि अ० ५ ० ७ के आधारसे जो यह लिखा है। कि 'यदि मनुष्य, पशु, पक्षी आदिको सद्भूत गति आदि निमितोंकी सहायता पूर्वक उत्पन्न होनेसे उपर णामोंकी धर्मादि द्रयोंमें भूतता हो मानने योग्य है, अन्वया यदि धर्मादिभ्योंके गतिहेतुत्वादिगुणों कूटस्थता जा जानेसे फिर धर्मादि उपर्युक्त मनुष्य, पशु, पक्षी आदिको भिन्न-भिन्न गति आदिमं सहायक नहीं हो सकेंगे।'
सो इस सम्बन्ध इतना हो कहना है कि मनुष्य, पशु, पक्षी आदिको जो गति हो रही है वह सद्भूत है इसमें संदेह नहीं। इसी प्रकार धर्मादि उम्पोंगे जो प्रति समय परिणमन हो रहा है वह भी सभूत हैं, इसमें भी संदेह नहीं । इन्हें हमने कहीं अद्भूत कहा भी नहीं है। प्रत्येक द्रव्य स्वभाषते पर्यायकी अपेक्षा परिणमनशील होनेके कारण
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अदभूत है भी नहीं तथा इसी प्रकार प्रतिसमय अपने उत्पादस्वभाव के कारण
रूपसे उत्पन्न होता है, आयस्वभाव के कारण परून व्ययको प्राप्त होता है और प्रो स्वभावके कारण द्रव्यरूपये न उत्पन्न होता है और न व्ययको ही प्राप्त होता है। ऐसी वस्तु व्यवस्था है, फिर भी एक पर्यायसे दूसरी पर्याय जो अन्तर प्रतीत होता है वह अन्तर दूसरेके संयोग करनेका परिणाम (फल) होने कारण बलग-अलग प्रत्येक पर्याय उपाधिको भी स्वीकार किया गया है इसी तथ्यको स्पष्ट करते हुए अष्टसहली पृ० ११२ में कहा भी है-