Book Title: Jaipur Khaniya Tattvacharcha Aur Uski Samksha Part 2
Author(s): Fulchandra Jain Shastri
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur
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जयपुर (खानिया ) तब चर्चा
स्वप्रत्ययममूर्तसम्बदमध्याबाधमनन्तं सुखमनुभवसि च ।
तत्रार्थबार्तिक अ० १ सू० २ में क्षयोपशमसम्यक्त्वको उत्पत्ति में सम्यक्त्व प्रकृति निर्मित है इस बात को ध्यान में रखकर प्रश्नकर्ताने यह प्रश्न किया है कि सम्यक्त्व प्रकृतिको भो मोक्षका कारण कहना चाहिए | इसका अन्तिम समाधान करते हुए भट्टाकलंकदेव लिखते हैं
आव स्वशक्त्या दर्शनपर्यायेणोपयते इति तस्यैव मोक्षकारणत्वं युक्तम् ।
इस उद्धरणमें भी सम्यक्त्वकी उत्पत्ति स्वयं आत्मशक्तिके वलसे हो होती है यह स्पष्ट किया गया है। जो उक्त अर्थके समर्थन के लिए पर्याप्त है ।
इस प्रकार उक्त आगम प्रमाणोंके बलसे यह स्पष्ट ज्ञात हो जाता है कि जिस प्रकार विभाव पर्यायोंकी उत्पत्ति में कालादि द्रव्योंकी पर्यायसे निमित्तता होनेपर भी सर्वसाधारण निमित्त होनेसे प्रत्येक विभाव
की उत्पत्ति निमित्तरूपसे उनका उल्लेख नहीं किया जाता उसी प्रकार स्वभाव पर्यायों को दस में कालादि द्रव्योंकी पर्यायरूपसे निमित्तता होनेपर भी सर्वसाधारण निमित्त होनेसे प्रत्येक स्वभाव पर्यायोंकी उत्पत्ति में निमित्तरूप से उनका उल्लेख नहीं किया जाता। यही कारण है कि आगममें सभी स्वभाव पर्याव स्व-प्रत्यय हो निर्दिष्ट की गई हैं । वस्तुतः स्वभाव पर्याय और विभाव पर्याय इनके विभाजनका मुख्य हेतु वह है जिसका निर्देश हम प्रववनसार गाथा ६३ और उसको पुत्रोक्त टीकामें कर आये है। आशय यह है कि जो पर्यायें परनिरपेक्ष अपने स्वभावका ही आश्रय लेकर उत्पन्न होती हैं वे स्वभाव पर्यायें हैं और जो पर्यायें अपनी उत्पत्तिके काल में उत्पन्न होनेवालों पर द्रव्यकी पर्यायों को ( निमित्तीकृत्य ) कर्ता या करण निमित्त करके उत्पन्न होती हैं वे विभाव पर्यायें हैं। स्वभाव पर्यायों को स्वप्रत्यय और विभाव पर्यायोंको स्व-परप्रत्यय कहने का यही मुख्य कारण है ।
यहाँ इतना विशेष जान लेना चाहिये कि विभाव पर्यायोंमें जो विशेष निमिल होते है उन्हें कर्ता निमित्त, करण निमित्त या प्रेरकनिमित्त कहनेका कारण यह नहीं है कि वे बलात् अन्य द्रव्य में पर्यायों को उत्पन्न करते हैं। यदि वे अन्य द्रव्यको पर्यायोंको बलात् उत्पन्न करें तो दो द्रव्यों में या ती एकताका प्रसंग उपस्थित हो जायगा या फिर एक द्रव्य में दो क्रियाओंका कर्तुत्व स्वीकार करना पड़ेगा जो जिनागमके विरुद्ध है । अतएव परद्रव्यमें निमित्तकी विवक्षावश कर्ता आदिका व्यवहार उपचरित ही जानना चाहिये । इस प्रकार स्वभावयें स्वप्रत्यय क्यों कहलाती हैं इसका साष्टीकरण करते हुए विभाव पर्यायें स्वपरप्रत्यय क्यों कही गई हैं इसका भी प्रकरण संगत स्पष्टीकरण हो जानेपर उक्त प्रकार से पर्यायें दो ही प्रकार की है यह सिद्ध होता है ।
२. पर्यायोंकी द्विविधताका विशेष खुलासा
इस प्रकार स्वप्रत्यय और स्वपरप्रत्यय पर्यायें दो ही प्रकारकी है ऐसा निश्चय हो जानेपर प्रकृत में इस चातका विचार करना है कि क्या द्रव्योंको कुछ पर्यायें ऐसी भी हैं जिनमें कालको भो निमित्तरूपसे नहीं स्वीकार किया गया है, क्योंकि अपर पक्षका कहना है कि 'अगुरुलघुगुणके द्वारा होनेवाली द्रव्यकी षड्गुणहानि-वृद्धि रूप परिणमनों को ही स्वप्रत्यय परिणमन नललाया गया है।' इसलिए यह प्रश्न विचारणीय हो जाता है। आगे इसका विचार करते हैं
१. अनन्तर पूर्व बने आगम प्रमाण देकर हम यह तो बतला ही आये हैं कि स्वप्रत्यय और स्वपरप्रत्यय पर्यायें दो ही प्रकारकी होती है । संसारी जीव और पुद्गलस्कन्धों में जितने विभाव ( आगन्तुक ) भाव हैं वे सब